Wednesday 15 February 2017

जुलूस

खुद को जो देखा
तुम्हारी नज़र में

मेरी कुर्बत न मेरे
मुक़म्मल से थी,
मेरी पहचान नासाज़
मौसम-सी थी,
जो किसी धुंध में
कोई गफलत सी थी

कभी अच्छे सहर मे
भी जागा करो  ।

खुद को जो देखा
तुम्हारे शहर मे,

हर बाशिंदे को
मेरी भी पहचान थी,
बस जुबाँ ही थी
जो मेरी अनजान थी,

बोलती-सी थी कुछ
सहमी आवाज़ मे,
कुछ मीनारों मे
यलगार की आग थी,

मै हूँ आया वकालत
से जिसकी यहां,
एक मूरत खड़ी थी
उसी नाम की,

मैंने पाया मीनारों
से लिपटी हुयी,
मेरे लफ़्ज़ों की पूरी
तो दास्तां थी,

मेरे शब्दों चुनकर
दीवारों से तुम,
कभी अपनी ग़ज़ल मे,
पिरोया करो ।

खुद को जो देखा
तुम्हारी नज़र से,

ढुढती थी वो तुमको
मेरे शहर में,
पूछती थी वो किस्से
तेरी गुफ्तगूँ के,
मांगती थी वो उज़रत
कई जुस्तजूं के

खुद ही पाओगी
खुद को खुदा-सी मुकम्मल,
कभी खुद को भी
मेरी नज़र से तो देखो । । 

नवरात्र

भावनाओं की कलश  हँसी की श्रोत, अहम को घोल लेती  तुम शीतल जल, तुम रंगहीन निष्पाप  मेरी घुला विचार, मेरे सपनों के चित्रपट  तुमसे बनते नीलकंठ, ...