Saturday 23 September 2017

क्या हुआ ?

क्यूँ फ़ोन किया था ?
कुछ कहना है ?
कुछ बताना है ?
कुछ पुछना है ?
कुछ जताना है ?

मै कुछ नया तो
करती नही,
तो उसी बात को
क्यूँ बार-बार दुहराना है ?

क्या करूँगी सुनकर,
तुम्हारी भी बातें ?
मुझे कौन- सा उसपे
थिसिस बनाना है ?

परीक्षा है मेरी,
मुझे पाठ दुहराना है।
कुछ बच्चों को शाम को,
ट्युशन पढ़ाना है।

कोई काम भी है मुझको,
थोड़ा बाहर भी जाना है।
आज छुट्टी है सबकी
वो अलग ही फ़साना है।

कल क्लास थोड़ी जल्दी है,
मुझे तड़के ही जाना है ।
आज भी बहुत काम था,
तो सोई नही हूँ,
उसका भी कोटा,
मुझे आज ही भूनाना है।

ख़ैर तूम्हे तो सब पता है
तो फिर क्या समझाना है ?

और कहो! क्या हुआ ?
तुम्हे कुछ सुनाना है ?

'नहीं! कुछ नहीं,
बस यूँ ही!'

Friday 1 September 2017

जिसे ढ़ुंढ़ती है मेरी नज़र

वो जो सुबह पार्क मे
जॉगिंग करने अाती है,
मेरे बग़ल से दौड़कर
गुज़र जाती है,

वो मेरे साथ चल पाती
तो वो तुम होती।

वो जो पुस्तकालय मे
अाखिरी सीट पर बैठती है,
मन मे शरारत लिये
मुझसे नाहक ऐंठती है,

वो ज़रा ग़ुस्सा कर पाती
तो वो तुम होती।

वो जो क्लास मे प्रश्न
बार-बार पूछती है,
पर जवाब मे वजह
अपना ही ढ़ूंढती है,

वो 'नालायक' मुझे कह पाती
तो वो तुम होती।

वो जो छुपकर
करती है बातें मुझसे,
वो जो समझती है
ख़ुद को चालाक ख़ुद से,

गर मुझको भी समझ पाती
तो वो तुम होती।

वो जो होंठों को भींचकर
शरारत छुपाती है,
फिर भी अनचाही हँसी
जिसकी छूट जाती है,

जो आँखों से मुस्कूराती है,
जो तबियत से खिलखिलाती है,
जिसकी ख़ुशी मन से,
पूरे चेहरे पर छा जाती है,

वो दिखने मे काली होती
तो वो तुम होती।

जो वक़्त के साथ
थोड़ा तेज़ दौड़ पाता,
जो ग़ुस्से को थोड़ा-सा
और झेल पाता,

जो बातों को ढ़ंग से
कुछ और कह पाता,
जो बंधन मे थोड़ी देर
और रह पाता,

जो मन से उजला होता,
तो वो मै होता।

संगम

कुछ उन्होंने मान ली  कुछ मैंने बातें कही नहीं, कुछ मेरी नर्म जुबां थी  कुछ उनकी मंद मुस्कान थी, कुछ उनके घर का आँगन था  कुछ मेरी द्वार पर पू...