कला चित्रण: श्वेता
फूँक कर बिखरा दिया,
उसने इंद्रधनुष ।
खुद के अंधेरों से निकाला
उसने नवल रंग रूप ।
एक साथ पर कहा
पति, बेटे और भाई ने,
'खराब कईलेस कागज ई !
एके कब अक्ल आई रे ?'
वह ठहर गई यह सुनकर
"क्या समझ गई तुम कुछ भर ?"
पूछा उसने,
क्या मंदबुद्धि है मेरी ?
होती क्यूँ उलाहना मेरी ?
सोचते क्यूँ हो
मुझसे हल न होंगे प्रश्न !
मैं निराकार ही हूं,
मेरा नहीं कोई भविष्य !
नहीं मेरी अंग्रेजी,
नहीं मेरा संघर्ष ।
क्यों नहीं करते तुम्हे
विह्वव मेरे उत्कर्ष ?
क्यूँ कही तुमने,
हर बात मेरी झूठ ?
खेलना मुझसे ना होगा,
Badminton भी 1 टूक !
क्यों लगा तुमको कि मैंं
करती नहीं हूं काज ?
क्यूँ तुम्हें रिटायरमेंट मेरी
अखरती है आज ?
क्यूँ नहीं देखा किसी ने
मेरा पसीना, बूंद ?
क्यूँ मेरा उज्जवला कनेक्शन
आज तक था दूर ?
क्यूँ हँसे जब शादी मेरी
लगती नहीं हर रोज ?
तंज़ तुमने क्यूँ कसे,
'करमजली है, बोझ !' ?
क्यूँ कहा तुमने,
'छोड़ दे ! तोसे ना हो पाई !'
slow learner कहकर
तुमने मेरी क्लास लगाई ।
क्यूँ नहीं तुम रख ही पाए
आवाज पर काबू ?
क्यूँ हर गलती पर तुमने
कारण बताया 'तूँँ' !
एक स्वर हो कर के दे दी
फिर हर बेटी ने आवाज़,
गर सुनाती मैं सभी को
और न रखती राज,
रो रहे थे तुम फफक्कर
जो सवेरे आज।
आंसुओं की कीमत का
तब पड़ता तुम्हें अंदाज,
और मेरी मंदबुद्धि
पर तुम न करते ना नाज़ ।