जिसे बंधन ही पसंद नहीं,
वही जो सूरज की किरणों जैसी
निर्वात और सघन मे है,
जो मेघ से चल, बूँदों-सी बरसी
शहर और निर्जन मे है,
चेतना समान जो हुई
जड़- चेतन के स्पन्दन मे है,
जो छोड़ अयोध्या आ निकली
विचरण करती कानन मे है,
जो शिव तत्व-सा फैल गई
वसुधा के कण-कण मे है,
जो मुक्ति की अभिलाषा को
तृप्ति दिए बंधन मे है,
जो युक्ति की परिभाषा लिए
विचारों के मंथन मे है,
जो परावर्तित होती रोशन होती
हर आँखों के दर्पण मे है,
जो जीत से आगे पहुँच गई
निःस्वार्थ समर्पण मे है,
जो आंसू बनकर ढुलक रही
अबोध के क्षण क्रंदन मे है!