Wednesday 22 September 2021

अमरूद का पेड़

अमरूद का पेड़
खुला हुआ है,
और उसकी
हर डाली
अलग–अलग होकर
झूमती है,

पूरा पेड़ ही
मस्त हो जाता है,
बरसात मे,
सबकी किस्मत
उसके हाथ मे,
सब अपने मे मगन
कोई पानी से,
कोई हवा से
और कोई उड़ाकर घोसालों
आज है उन्मुक्त,
कल का सूरज,
वो ही देखेगा
जो आज पूरा झूम लेगा
लग हवा के साथ,

वो टूट जाएगा
जो अकड़ कर
रह गया होगा,
पर अमरूद का पेड़
बचा रहेगा,
बची टहनियों मे
फिर अमरूद लगेंगे,
मिलके सारी डालियां
बनकर साथ रहेंगी
अमरूद का पेड़।


अधूरा

कुछ अधूरा है
जिसे कर रहा हूं पूरा
अपनी कलम की नोक से,

रह–रह कर
खींच देता पाहियां,
भर देता माथे
‘ध’ और ‘थ’ के,
भूलकर या जानकर मै,
और कर देता पूरा गोल
‘a’ और ‘o’ को,

रंग भर देता
‘b’ और ‘क’ के पेट मे,
अलग कर देता
बंद कर कोष्ठक मे
कुछ पुराने से
नए topics को

अधूरा है शब्द या 
व्यवहार मेरा,
कमी है लिखावट मे
मेरी तब नही थी सही
और अब नही लगती सही

अधूरी है कौन सी दास्तान 
मेरे जीवन की
जिसे अपने ढंग के
नए रंग ओढ़ाकर,
कर रहा है मन सुसज्जित
बार–बार, बार–बार।

Monday 20 September 2021

पंखा

पंखा नही चल रहा है
पंखा होते हुए भी,
नही चला रहा है
ये तो पंखे वाला मूर्ख है।

पंखा नही है जिसके पास
वह तो अव्वल मूर्ख है,
गरीब है, नादान है
निकम्मा है, बेईमान है
अज्ञानी है, असमर्थ है,
मेरे हैसियत के नीचे है,
मेरी समझ के बाहर है।

पंखा नही है जिसके पास,
उसके पास विचार क्या हो ?
पंखा नहीं है जिसके पास
कोई उसके पास क्यूं हो?
वह पंखे बिना जो बैठेगा
तर–बतर पसीने से होगा,
हवा न होगी उसके पास
तो कितना बुरा वो महकेगा?

छी: ! ये कैसा पढ़ा–लिखा सा
इसे पंखे की भी समझ नहीं,
आधुनिक समाज को क्या देखा
जो पंखे की भी कदर नहीं?

मै बिन पंखे के जीवन मे
एक पल भी जिंदा ना बैठूं,
जिसके घर मे पंखा ना
उसके घर भी न जाऊं !
उस दुकान से क्या खरीद करूं
जो पंखे के बिना ही चलता है,
उसको मै सौदा क्या बेचूं
जो पंखा बिना सब सहता है।

मैने सीमित खुद को करता हूं
बस पंखे के ही इर्द–गिर्द,
वह काम नहीं मै कर सकता
जो पंखे से हो दूर–दूर !
मै शांति–निकेतन में जाकर
पढ़ना छोड़ भी सकता हूं,
मै रामचंद्र की पंचवटी को
हाथ जोड़कर हटता हूं,
मै चुनाव की रैली मे
और वोट डालने नही गया,
सब तो कर आए पंचकोश
मै पंखे में ही सोता हूं,

कोई धर्म नहीं, सत्संग नहीं,
कोई कर्म नहीं, अभ्यास नहीं
बिन मेरे पंखा कही नही,
मै पंखे के बिन कहीं नहीं,
मै पंखा चलाके बैठा,
मै पंखे से ही लटका हूं,
अब चलना–फिरना भूल गया,
मै पंखे तक ही अटका हूं,

मै ये पंखा चलाता हूं,
या पंखा मुझे चलाता है?

Thursday 16 September 2021

शिष्य

शिष्य और गुरु का संबध
कैसा है ये कौन जाने?

गुरु समझता शिष्य के गुण
देखकर बस चाल ही,
वह ही जाने,
कौन रावण और किसे
वह राम माने

वह ही जाने कर्ण को
देना कौन–सा अभिशाप है,
किस स्वरूप मे है ज्ञान उसका
धर्म के संस्थापनार्थ,

द्रोण जाने कौन देगा
अंगुष्ठ उसको दान मे,
कौन बनकर विश्व–धनुर्धर
प्राण लेगा संग्राम मे।

Wednesday 15 September 2021

आवाज़

तुम फिर से मेरी
कविता कोई पढ़ दो
अपनी आवाज़ मे,

कुछ ना सोची हो मैने
कुछ तरीके नए हों
कुछ किस्से अलग हो
कुछ हो तर्जुमा भी
एकदम से अलग
कुछ मकसद पे मेरी
फब्ती कोई कस दो,
अपनी जुबां से
कविता मेरी पढ़ दो।

अब ना पूछूंगा मै की
क्या कर रही हो,
किससे जुड़ी हो
किससे अलग हो,
किसकी किस्मत पे
सितारे तुम जड़ रही हो?

पर सड़क के किनारे
बैठने ही को मिल लो,
कुछ ना बोलो मगर
आंख से कुछ तो कह दो,
हां भी नहीं और ना भी नहीं
पर उंगली पकड़कर
अपना हक तो रख लो,

मेरी कोई तुम पढ़कर सुना दो।

Tuesday 14 September 2021

अन्यायी

क्या अन्याय है
जग मे जो
मैंने नहीं किया है,

मैंने नहीं लूटी है अस्मत
बोली से और बातों से
या मैने नही देखी है जाति
नाम पूछकर यारों से,

क्या मैंने नहीं चाहा
की मर जाए वो,
गलत काम जो करता है
क्या मैंने नहीं चाहा
की टांग खींच दूं
जो आगे मुझसे चलता है

बस गोली और 
बंदूक नहीं थी
हाथ मेरे, छोटा था मै
मै कैसे कह दूं
पाप नहीं वह
मन मे ही बस
करता था मै,

मै भी बैठा था
दरबार मे तब,
जब द्रौपदी सभा
मे आई थी,
मैने भी दागी थी गोली
जब "हे! राम" कोई
चिल्लाया था !

कैसे कह दूं की मैने गांधी को नही मारा?

Sunday 12 September 2021

चाय

लाल टीम और
नीली टीम मे
बड़ा भयंकर
मैच था,
आखिरी गेंद तक
रोमांच ही रोमांच था।

जीत हार का फैसला भी
बहुत मुश्किल हो सका,
दोनों टीमों के खिलाड़ी
कोई बांका ना बचा,

पर चाहने वालों मे उनके
बहस कोई हो गई,
लड़ने लगे दोनों की आखिर
जीत किसकी हो गई?

दोनो करने फैसला
गए कप्तान के पास,
और जाकर पाया की
वो कर रहे थे बात,
अगले मैच के लिए
बना रहे थे रहेे राय,
दोनो हंसते मुस्कुराते
पी रहे थे चाय।

बैल

बैल कर रहें हैं
चर्चा और समाधान
सिंग भिड़ा–भिड़ा के
करते समाधान

हर बात पर है जोर
खींचते पुरजोर,
कौन बैल है सही
कौन बैल है बड़ा
बैल की तरह ही आज
बैल करते फैसला!

Friday 10 September 2021

स्वान मंच

स्वान–मंच पर
हो रही थी
आज स्वान चर्चा,

एक बोला "भौं!"
दूसरा बोला "भौं!,भौं!"

तीसरा खड़ा था
चुप था,
कुछ विचार कर रहा था शायद
वो पहले स्वान की पूछ
पकड़ कर चबाया,
उसका ध्यान खींचने
के लिए शायद,

पहले ने पीछे पलट के
बोला "भौं! भौं–भौं?"
क्या हुआ?
"भाऊ!" कुछ नहीं!

पहले ने पूछा–"भाऊ !!!,
भौं, भौं–भौं–भौं, भौं–भौं?
भौं–भौं–भौं–भौं–भौं, 
भौं–भौं–भौं–भौं?

अब तीसरा वाला गुर्राया,
दोनों आंखों को पास लाया
और दाहिने दांतों के
मसूड़ों को ऊपर उठाकर
तेज–तेज हवा निकालने लगा
मुंह के एक तरफ से

मूंछें खड़ी और तैनात
नाक पर पसीना,
उसने बोला "भौं !"
कुछ रुककर फिर बोला–”भौं!"

कुछ छोटे पिल्ले पीछे से
एक साथ बोले "भाऊ! भाऊ! भाऊ!"

तभी एक वयस्क स्वान ने
काट लिया एक बूढ़े स्वान को
कुत्ता समझकर,
कटा हुआ मांस लटक गया।

सारे स्वान एक साथ चिल्ला उठे,
फिर समझकर दहाड़
अपनी ही आवाज़ को,
शेर से भयंकर
और संसार समझकर
अपने ही मांद को,

सब एक साथ बोल उठे–
"भौं, भौं–भौं–भौं, भौं–भौं,
भौं, भौं–भौं–भौं, भौं–भौं,
भौं, भौं–भौं–भौं, भौं–भौं,
भौं, भौं–भौं–भौं, भौं–भौं,
भौं, भौं–भौं–भौं, भौं–भौं,
भौं !
भौं !
भौं !
भौं !
भौं !
भौं !"

Monday 6 September 2021

Indian Islam

इस्लाम ओढ़ता है क्या
वक्त और समाज के 
हिसाब से हिजाब?

क्या लगाता है
महफिलों में इत्र और फुरेरी
क्या दरगाह पर चढ़ाता है
चुनर लाल रंग की?

क्या हलाल और झटका मे
अंतर कर पाता है
इस्लाम हिंदुस्तान मे?

क्या खलीफा की करके
मुखालफ़त, 
खिलाफ़त आंदोलन
करता है इस्लाम
आवाम के साथ?
अनुग्रहवादी बनकर
अंग्रेजों के खिलाफ,
‘बापू’ के साथ?
और फिर जुड़ जाता है
‘बिस्मिल’ बनकर
राम के साथ?

उर्दू मे लिखता है
हिंदुस्तानी इस्लाम
‘उपन्यास–सम्राट’ की कलम से?
या रुलाता है हंसाता है
‘दिलीप कुमार’ नाम बदल के?

क्या हिंदुस्तानी इस्लाम मस्जिदों मे
औरतों पर पहरा लगाता,
क्या वह तीन–तलाक की
बहाली पर नारा लगाता है,
संसद मे चिल्लाता है?

क्या हिंदुस्तानी इस्लाम
हिंदू भूतों को जानता है,
झाड़–फूंक करके भगाता है?
ताबीज देता है, डर भगाता है?

क्या कव्वाली मे
राम सजाता है,
रामचरित मानस
उर्दू में लिख जाता है
हनुमान चालिसा
गाता है?

और यही इस्लाम
अफगानिस्तान मे बंदूक चलाता है?

क्या इस्लाम है
जो वक्त और जगह देखकर
बदल जाता है
या इंसान है?

कौन ओढ़े है किसको?





जलियांवाला

यह देखो ये जलियांवाला
यहां चली थी गोलियां,
यही लगी थी जनमानस मे
इंकलाब की बोलियां,

यही कूद के जान गवाई
कुंवे मे भी लोगों ने,
यही बहुत सी गोली खाई
आज़ादी के सिपह–सलाहकारों ने

आज इसी पर लड़ बैठे हैं
कुछ लोग और सरकार बहुत
चला रहे हैं गोली, पत्थर
बोली के हथियार बहुत

कोई इसको याद समझकर
छोड़ दो कहता छोड़ दो,
कोई यादों को ले जाकर
बांट दो कहता बांट दो

कुछ मत देखो और
दिखाओ मत
जो देख सके तो देख ले,
कुछ मूर्ति लगाकर
चाहे इसकी अमरता
पूरी घेर लें

यही है जलियांवाला बाग
यहां उठती है आवाजें
यहीं से शुरू होता है परिवर्तन
कोई चाहे न चाहे।

स्कूल

बच्चे स्कूल जा रहे हैं,
फिर से।

साइकिल चलाकर
दौड़कर, भागकर
चलकर, खेलकर
उंगलियां पकड़कर
घंटियां बजाकर,
टाई लगाकर
सड़कों पर छाकर

बच्चे स्कूल जा रहे हैं।

कुछ बस्ते लादकर
कुछ ब्रेड मुंह में दबाकर
मास्क जेब में छिपाकर
कॉलर का मुंह चबाकर
चेक वाली shirt पहनकर
जूते polish कर
Nailpolish हटाकर
बच्चे स्कूल जा रहे हैं।

कुछ बच्चे और भी
काम पर जा रहे हैं,
चाय का पूर्वा उठाकर
रख रहे है,
फटी कमीज़ मे
उंगलियां डालकर
और बड़ा कर रहे हैं,
वो बच्चे सोच रहे हैं
की उनके मां–बाप
Corona मे चले ना जाते
तो वो भी आज स्कूल जाते

वो बच्चे सपने में
स्कूल जा रहे हैं!




Sunday 5 September 2021

लोट पोट

आखिरी बार कब
हंसे थे खुलकर?

ऐसा की जैसे
गूंज उठी था घर
बादलों की गरज
की तरह,

ऐसा की लगा हो
की कोई कह न दे पागल
और उठा ले जाए पागलघर,

ऐसा की जैसे
दिल की धड़कने गई हों बहुत बढ़
और आ गई हो सांसे हलक तक,

ऐसा की खांसी आ गई हो
आंख मे भर आया हो पानी,
और गाल और मुंह लाल
होंठ गए हो सूख
मुंह से फिसलकर
नाक से निकली हो थूंक।

ऐसा की नाक बह गई हो
जैसे सर्दी लग गई हो
और मुंह मे घुस गई हो
और ठुड्ढी पर बह गई हो
लार से मिलकर।

ऐसा की डर ही डर गया है
और याद आ गए हों
मीराबाई, सूरदास और कबीर
अंग्रेजों के सामने गांधी और
भगत और फंदा चूमते बिस्मिल और सुखदेव
और फिर रो दिया हो तुमने
अंगूठा दिखाकर
झूम गए हो जैसे 
राम के साथ वन जाकर
और हनुमान जी की पूंछ से लटककर।

ऐसा की जैसे
दिमाग की नसों मे
खून गया हो एक साथ दौड़
और एक–एक परमाणु मे
लग गई–सी हो कोई होड़
की कौन ले जाए ऑक्सीजन को
एक–एक न्यूरॉन तक
और हर एक कोलेस्ट्रॉल
गया हो गल
बीपी की बीमारी गई हो चल
सारा नशा एक साथ
हो गया हो उफन।

ऐसा की जैसे
तुम हो गए हो जमींदोज
और जमीन पर लोट कर
रहे हो एड़िया रगड़
चाहते हो कोई ले
तुम्हारा हाथ पकड़
और तुम्हे न हो सका कोई संभाल
कपड़े हो गए हो गए हों गंदे
बिना कोई फिकर
दोस्त रिश्तेदार और परिवार मे
बचा ही न हो कोई अंतर
दुश्मन ही न हो कोई
अफगानिस्तान भी लग रहा हो घर
मजहब और जात से
तुम पा गए हो खुद को बाहर।

ऐसा कब हंसे थे आखिरी बार
और किसके साथ?
और कब हंसोगे
आखिरी सांस के पहले,
कब बीतेगा तुम्हारा आजकल,
कब ऐसा हंसोगे की
लगे की आखिरी बार ?



वजह

इसलिए नाराज़ हो तुम
की उस दिन इस समय
मैंने सोचे बिना कहा था
वो जो नही था कहना।

इस वजह से,
उस बात के लिए,
उसने वो कर दिया
उसके साथ,
की उसने कहा कि
उसे ऐसा नहीं
कहना चाहिए था
उन लोगों के सामने
या इन लोगो को
इस तरह से।

उसको क्या लगेगा 
की उसका वो कैसा है
जिसको इतनी–सी भी
नही है इसकी समझ,
उस समाज की
जिसकी सबको है फिकर।

उसके उसने तो
उसके साथ
वैसा नहीं किया कभी
जो वो कहती है
वही समझा उसको
और वही उसके लिए थी
उसके जैसी की
जैसे थे नही भगवान भी।

तो इसलिए मै हूं
तुमसे नाराज़
और उससे नही
और उससे भी नही
और नही करूंगी बात
तक तक जब तक की
उसके जैसे तुम नहीं। 

नवरात्र

भावनाओं की कलश  हँसी की श्रोत, अहम को घोल लेती  तुम शीतल जल, तुम रंगहीन निष्पाप  मेरी घुला विचार, मेरे सपनों के चित्रपट  तुमसे बनते नीलकंठ, ...