जिसपर चलकर
तुम आये हो,
कितने कीचड़-कंकर थे
जो पीछे
छोड़ आए हो,
कितने दिन ही
बैठ-बैठकर
पाव की मिट्टी
धोई है,
कितनी बातें
हँसकर टाली,
कितनी रातें
रोई हैं,
कितनों का हाथ
पकड़कर आगे,
चले हो साँसें
चुन-चुनकर,
कितनों को ही
भुला दिया,
जब आए वो
तृष्णा बनकर,
कैसे सुबह-सुबह
उठकर घंटों
रहे विचारों मे,
सूर्य नमस्कार तो
छोड़ ही दो,
करवट बदले
बड़े हज़ारों मे,
कैसे दूर किया
उनको जो,
बोली पर ही
भारी थे,
कैसे उनको
पहचाना जो
अन्दर से भी
काले थे,
कैसे बड़े छलावे मे
हमने सेंध लगाई थी,
कैसे दूर हटे थे खुद से
कैसे बात बनाई थी,
क्यूँ उसको
अब हो टटोलते,
जिसके बल
जी पाए हो?
कैसे भूल गए वो रास्ते
जिनपर चलकर
तुम आए हो?