Wednesday 29 December 2021

रत्ती

रत्ती भर की 
खुशी के लिए,
कुछ और कमाना बाकी है,
उनसे मेरी बात हो चुकी
पर उनसे मिलना बाकी है,
फोन तो उनको किया था मैंने
इस बार उठाना बाकी है।

बंगला मैंने बना लिया है
गाड़ी मैं बहुत बड़ी ली,
पर उसमे भरना सात समुंदर,
और रत्न–धन खान,
आसमान की सैर पे जाना
और फिर आना बाकी है,
हंसी ठहाके कभी लगाए
पर जश्न मनाना बाकी है।

फूल तोड़कर लाया हूं मैं
उन्हे चढ़ाना बाकी है,
तितली को देखा है उड़ते
मुझको उड़ना बाकी है,
मैंने कोयल सुना है बैठे
मेरा गाना बाकी है,
इतना पढ़ना खतम हो गया
उतना पढ़ना बाकी है,
मुझको मेरा मीत मिल गया,
उसमे भी कुछ बाकी है,

राम नाम को मंतर जाना
‘बापू’ का जंतर भी माना
उसे देखकर रोने वाली
फितरत जाना बाकी है,

मैंने किलकाली मार बहुत ली
दिल का हंसना बाकी है।



Tuesday 28 December 2021

शोर

शोर है शरीर का
या जड़ हुई है चेतना,
लड़ रहा है रोककर
विचार की ये मेखला,
बुलबुलों से उठ रहे
पहचान मेरे जान के,
ये प्रश्न आकर बन रहे
जो भाव से हैं भीगते,

कर रहा है बार–बार
उधेड़–बुन लगा हुआ,
भाव को घुमा रहा है
भाव का उपजा हुआ,
भाव मे रमा नही
जो ढूंढ़ता मिला नही,
वो भाव कैसे खा रहा
ठंड मे जमा नहीं,

शोर यही शोर है ये
चिर पुरातन शोर है,
है मनुज की कल्पना
विस्तार की है आसना,
शोर की पुकार मे
शोर ही रुकाव है
शोर के चित्कार की
राम ही पुकार है,
राम ही है अंत मे
राम ही आगाज़ है,
राम की तलाश मे
ये राम की आवाज है।

Friday 24 December 2021

राम–काज

राम–काज क्या है
करने को आतुर
सभी को पड़ी है,

करता हुं मै वो या
करते हैं सब जो,
जो करता है कोई
दिन–रात लग के,
या करता है जो कोई
औरों से छुप के,

खेलता है जो कोई
मिलकर सभी से,
या बैठा है जो कोई
सबसे झगड़कर,
बोलने वाला सबको
जो आगे बताए या
चुप बैठा साधु
जो न पलके हिलाए,

हिमालय पे बैठा
जो सब देखता है,
या नगर मे विचरता
जो भिक्षु बना है,
जो है मुस्कुराता
सभी को देखता है,
या प्रलय–नेत्र खोले
जो सब भेदता है,

राम काज में लगा है कौन
राम हृदय में बसा है कौन
कौन है जिसमे राम नहीं हैं?

मान लो

मान लो थोड़ी बात
कुछ कहने भी सुन लो
वो जो कहता है कहने वाला
उसको भी गुन लो

उसकी भी मिट्टी
बहुत लटपटी है,
उसकी की हसरत
बहुत–सी दबी है,
उसने भी तकिए 
भिगाए हुए हैं,
उसने भी चेहरे
छिपाए हुए हैं

उसको पड़ी है
तुम्हारी हंसी की,
जो झेला है उसने
उसी से लड़ी है,
पर नहीं चाहती की
लड़े फिर से कोई,
दरवाजे–से बिरा के
बढ़े फिर से कोई,
बस इसी मायने मे
तुम्हे कह रही है

उसकी घुटन को
खुला आसमान दो,
अपनी कुछ दबा के
उसकी ही सुन लो।

गाली

एक गाली से ये
समाज सुधार जायेगा?

सुधरा है क्या परिवार
उसका कोई व्यवहार
किसी का भतार
कोई दबा है कभी यलगार
एक गाली–से?

बदली है क्या सरकार
गांधी–सा दमदार
भगत की पुकार
और मेरे ही विचार
क्या बदल गए गाली–से?

आंख के बदले आंख
और गाली के बदले गाली,
मैंने सोच ली बहुत
किसी की कमी बहुत–सी,

पर कह देने से क्या
इंसान बदला है?
हिंसा से ही क्या
अंगुलीमाल बदला है?

बदला है धीरे–धीरे
समय भी बदला है,
सिद्धार्थ बदला है
नरेंद्र दत्त बदला है,
वर्धमान बदला है,
बस बदलने से खुद को
संसार बदला है !





वो भी

वो भी करना है
और पाना है वो भी,
वो भी बनना है
और जाना है वहाँ भी,

उससे मिलना है
और दिखाना है उसे भी,
उससे आगे भी
और उससे ज्यादा भी,

उसके लिए भी
और उनके लिए भी,
उसके सामने भी
और उनके सामने भी,

इतने समय मे
और उससे पहले,
इसके बाद वो
और उसके बाद वो,

कब आराम है
की सांस अगली लूं
इस सांस के पहले !

Tuesday 21 December 2021

वासना

वासना का रंग क्या
गोरा है या काला है?
चमक की दरकार है
या खुश्क होती रंगत?
खुशबू है गुलाब की
या अर्क है ये कांख की? 

वासना की उमर क्या
कली है या फूल का?
नर्म–सी चुभन है या 
छुवन किसी कटार की?
दर्द की है इम्तिहान या
आंसू है यह प्यार की?
किसी और की ललक कोई
या चाह है उद्गार की?

वासना का रूप क्या
मूर्त या अमूर्त है?
राम की माया है या
शिव का ही विस्तार है?
राह का कंकड़ है या
राह है संज्ञान का?

वासना का भेद क्या
है भी या की है नहीं?

खुशी

तुम चली गई तो खुशी का
रिवाज़ भी चला गया,
हंसना, गाना, खेलना 
नाचना भुला गया,

शाम को गली–गली
घूमना चला गया,
साइकिलों से राह तेरी
टटोलना चला गया,

चली गई सुबह की ठंड
रजा़यियों की आड़ मे,
अब हवा है जोहती बस
दरवाजों के पास मे,

चली गई मुस्कान मेरे
चेहरे की नई–नई,
हंसी, ठहाके गूंजते
गम जो मिटाती गई,

चले गए हैं डर को मेरे
थामते जो हाथ थे,
चले गए वो पांव भी
जो चलते मेरे साथ थे,

चली गई मिठास मेरे
चाय की भी साथ मे,
गोलगप्पों का तीखा वाला
ज़ायका भी बात मे,

चला गया वो शादियों का
शोर–गुल तमाम ही,
पहचान मेरी बन गई
तुम्हारे साथ–साथ ही,

तुम भी चली गई
और वक्त भी चला गया,
खुशी का वाकया मेरा
तुम्हारे संग गुजर गया।

Tuesday 14 December 2021

कदम


अब कदम पीछे हटा लो
की वो नही सुनना जो कल था।

अब नही जंजीर को
कह चूड़ियां पहना सकोगे,
अब नही माथे का टीका
पोछ कर कुल्टा कहोगे,

अब न बोलोगे की बोली
है हमारी आग जैसी,
अब न घर की हर समस्या
पर हमे है डाह सी,

अब न तुम स्कूल जाकर
भी कहोगे गालियां,
अब न रूढ़िवाद को
पढ़ा सकोगे ढर्रा बना,

अब तो अपनी गलतियां
शांति से स्वीकार लो,
पीछे कदम हटा लो अपना
मन जरा सवार लो।


संकल्प


संकल्प होता सिद्ध
बाबा विश्वनाथ के नाम से
संकल्प होता सिद्ध
राम के गुणगान से,

संकल्प थे गैरों के भी
काशी रहे काशी नही,
संकल्प थे औरों के भी
की आए नही दलित कोई,

पर काज सियावर–राम का
जो हनुमान लला से सिद्ध हुआ,
धर्म की संस्थापना जो
गांडीव से समृद्ध हुआ,

संकल्प है प्रारब्ध हेतु
राम काज की राह मे,
सिद्धि है आरंभ हेतु
राम राज की चाह मे,

संकल्प हो अब और भी
की चांद पर जाए कोई,
संकल्प हो अब यह की
भूखा अब नही सोए कोई,

संकल्प हो की हर कदम 
अब देश पर कुर्बान हो,
देश ही हो मन–कर्म–वचन मे
जब तलक ये जान हो,

कोई भी ना हो बेआबरू
कोई स्कूल फिर न छोड़ दे,
हर बेटी जो भी जन्म ले
वो जिंदगी भी जी सके,

कोई मां की न हो मृत्यु–सय्या
जन्म देते ही समय,
ना कुपोषण छू सके
किसी अबोध को बनकर प्रलय,

संकल्प हो और ध्यान हो
भगत, बिस्मिल की वजह,
संकल्प मे ही मिल सके
सबको जीने की वजह,

संकल्प मे ‘बापू’ बसे हों
आखिरी कतार मे,
संकल्प मे ‘बाबा’ रमे हों
संविधान की छांव मे।



Thursday 9 December 2021

महल

तुम्हे महल हो 
बहुत मुबारक,
महल तुम्हारा ऊंचा हो,
राम चंद 
वन–गमन से पहले 
महल मे गाने–नाच हो,

फूल खिलेगा वहां,
जहां की
राम–सिया के
चरण पड़ेंगे,
तुमको माता कैकेई
महल की चारण
वहीं मिलेंगे,

जिसको महल की
इच्छा होगी,
उसको महल मिलेगा
जो मांगे वनवास
राम का
उसको महल मिलेगा,
जो मांगेगा राम
उसको राम मिलेंगे!

बात

तुम हो नहीं
तो कहने को भी
सुनने को भी
बात मै खुद से करता हूं,

तुम हो नहीं तो
नहीं समझ है
मेरी और किसी को भी,
मै अपनी बातें 
तुमसे कहकर
तुमको सोच के हंसता हूं,

तुम बात किए भी बिना
मेरी जो समझ, 
समझ कर बैठी थी,
मै उसी समझ की
समझ लिए
खुद को बहलाया करता हूं,

जो तुमसे कह दी
बात बड़ी–सी
बिना सोच के
मुंहफट हो,
मै उसी बात को याद करूं
और आगे–पीछे करता हूं!
अक्सर मैं तन्हाई मे
अब बातें तुमसे करता हूं!

शाम

ढलती हुई शाम
को मै देखता हूं
दिन बिताकर,
और तन झकझोर कर
कुछ अंडे मै और
सोने के निकालकर,
मुर्गी को झकझोर कर,
सूरज को हथेली से
उठाकर, कोशिश कर
मुट्ठियों मे बंद कर
ढलने से पहले रोककर
मै फिसलते देखता हूं
शाम को ढलते
मै राम की उंगली पकड़कर
राम पर चढ़कर
और उतरकर,
राम की दुनिया को
मुट्ठी मे जकड़कर,
मै पिरोना और फिर रोना
परस्पर चाहता हूं,
मुस्कुराकर राम को धरता,
फिर जानकर
कल की नौबत 
राम मै रटता,
कल के सूरज को
मै उठता, राम सा जलता
मै शाम की
कल की सोचकर
देखता हूं शाम को ढलता।

बादल

बादल के–से
यह विचार के
आते–जाते कतार,
यह उड़ते
हवा की गोद मे
डोलते लगातार,
कुछ पहाड़ों से
टकराकर
बरस जाते घनघोर
डूबा जाते संसार,

यह मन की आकाश–गंगा
के लाल, पीले
काले, हरे, नीले
और सुनहरे
उड़ते–उड़ते बादल।

नवरात्र

भावनाओं की कलश  हँसी की श्रोत, अहम को घोल लेती  तुम शीतल जल, तुम रंगहीन निष्पाप  मेरी घुला विचार, मेरे सपनों के चित्रपट  तुमसे बनते नीलकंठ, ...