Thursday 9 December 2021

शाम

ढलती हुई शाम
को मै देखता हूं
दिन बिताकर,
और तन झकझोर कर
कुछ अंडे मै और
सोने के निकालकर,
मुर्गी को झकझोर कर,
सूरज को हथेली से
उठाकर, कोशिश कर
मुट्ठियों मे बंद कर
ढलने से पहले रोककर
मै फिसलते देखता हूं
शाम को ढलते
मै राम की उंगली पकड़कर
राम पर चढ़कर
और उतरकर,
राम की दुनिया को
मुट्ठी मे जकड़कर,
मै पिरोना और फिर रोना
परस्पर चाहता हूं,
मुस्कुराकर राम को धरता,
फिर जानकर
कल की नौबत 
राम मै रटता,
कल के सूरज को
मै उठता, राम सा जलता
मै शाम की
कल की सोचकर
देखता हूं शाम को ढलता।

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