Tuesday 28 December 2021

शोर

शोर है शरीर का
या जड़ हुई है चेतना,
लड़ रहा है रोककर
विचार की ये मेखला,
बुलबुलों से उठ रहे
पहचान मेरे जान के,
ये प्रश्न आकर बन रहे
जो भाव से हैं भीगते,

कर रहा है बार–बार
उधेड़–बुन लगा हुआ,
भाव को घुमा रहा है
भाव का उपजा हुआ,
भाव मे रमा नही
जो ढूंढ़ता मिला नही,
वो भाव कैसे खा रहा
ठंड मे जमा नहीं,

शोर यही शोर है ये
चिर पुरातन शोर है,
है मनुज की कल्पना
विस्तार की है आसना,
शोर की पुकार मे
शोर ही रुकाव है
शोर के चित्कार की
राम ही पुकार है,
राम ही है अंत मे
राम ही आगाज़ है,
राम की तलाश मे
ये राम की आवाज है।

No comments:

Post a Comment

दो राहें

तुम चले सड़क पर सीधा  हम धरे एक पगडंडी, तुम्हारे कदम सजे से  हम बढ़े कूदते ठौर, तुमने थामी हवा की टहनियां  हम बैठे डिब्बे में संग, तुम संगीत...