Wednesday 29 December 2021

रत्ती

रत्ती भर की 
खुशी के लिए,
कुछ और कमाना बाकी है,
उनसे मेरी बात हो चुकी
पर उनसे मिलना बाकी है,
फोन तो उनको किया था मैंने
इस बार उठाना बाकी है।

बंगला मैंने बना लिया है
गाड़ी मैं बहुत बड़ी ली,
पर उसमे भरना सात समुंदर,
और रत्न–धन खान,
आसमान की सैर पे जाना
और फिर आना बाकी है,
हंसी ठहाके कभी लगाए
पर जश्न मनाना बाकी है।

फूल तोड़कर लाया हूं मैं
उन्हे चढ़ाना बाकी है,
तितली को देखा है उड़ते
मुझको उड़ना बाकी है,
मैंने कोयल सुना है बैठे
मेरा गाना बाकी है,
इतना पढ़ना खतम हो गया
उतना पढ़ना बाकी है,
मुझको मेरा मीत मिल गया,
उसमे भी कुछ बाकी है,

राम नाम को मंतर जाना
‘बापू’ का जंतर भी माना
उसे देखकर रोने वाली
फितरत जाना बाकी है,

मैंने किलकाली मार बहुत ली
दिल का हंसना बाकी है।



Tuesday 28 December 2021

शोर

शोर है शरीर का
या जड़ हुई है चेतना,
लड़ रहा है रोककर
विचार की ये मेखला,
बुलबुलों से उठ रहे
पहचान मेरे जान के,
ये प्रश्न आकर बन रहे
जो भाव से हैं भीगते,

कर रहा है बार–बार
उधेड़–बुन लगा हुआ,
भाव को घुमा रहा है
भाव का उपजा हुआ,
भाव मे रमा नही
जो ढूंढ़ता मिला नही,
वो भाव कैसे खा रहा
ठंड मे जमा नहीं,

शोर यही शोर है ये
चिर पुरातन शोर है,
है मनुज की कल्पना
विस्तार की है आसना,
शोर की पुकार मे
शोर ही रुकाव है
शोर के चित्कार की
राम ही पुकार है,
राम ही है अंत मे
राम ही आगाज़ है,
राम की तलाश मे
ये राम की आवाज है।

Friday 24 December 2021

राम–काज

राम–काज क्या है
करने को आतुर
सभी को पड़ी है,

करता हुं मै वो या
करते हैं सब जो,
जो करता है कोई
दिन–रात लग के,
या करता है जो कोई
औरों से छुप के,

खेलता है जो कोई
मिलकर सभी से,
या बैठा है जो कोई
सबसे झगड़कर,
बोलने वाला सबको
जो आगे बताए या
चुप बैठा साधु
जो न पलके हिलाए,

हिमालय पे बैठा
जो सब देखता है,
या नगर मे विचरता
जो भिक्षु बना है,
जो है मुस्कुराता
सभी को देखता है,
या प्रलय–नेत्र खोले
जो सब भेदता है,

राम काज में लगा है कौन
राम हृदय में बसा है कौन
कौन है जिसमे राम नहीं हैं?

मान लो

मान लो थोड़ी बात
कुछ कहने भी सुन लो
वो जो कहता है कहने वाला
उसको भी गुन लो

उसकी भी मिट्टी
बहुत लटपटी है,
उसकी की हसरत
बहुत–सी दबी है,
उसने भी तकिए 
भिगाए हुए हैं,
उसने भी चेहरे
छिपाए हुए हैं

उसको पड़ी है
तुम्हारी हंसी की,
जो झेला है उसने
उसी से लड़ी है,
पर नहीं चाहती की
लड़े फिर से कोई,
दरवाजे–से बिरा के
बढ़े फिर से कोई,
बस इसी मायने मे
तुम्हे कह रही है

उसकी घुटन को
खुला आसमान दो,
अपनी कुछ दबा के
उसकी ही सुन लो।

गाली

एक गाली से ये
समाज सुधार जायेगा?

सुधरा है क्या परिवार
उसका कोई व्यवहार
किसी का भतार
कोई दबा है कभी यलगार
एक गाली–से?

बदली है क्या सरकार
गांधी–सा दमदार
भगत की पुकार
और मेरे ही विचार
क्या बदल गए गाली–से?

आंख के बदले आंख
और गाली के बदले गाली,
मैंने सोच ली बहुत
किसी की कमी बहुत–सी,

पर कह देने से क्या
इंसान बदला है?
हिंसा से ही क्या
अंगुलीमाल बदला है?

बदला है धीरे–धीरे
समय भी बदला है,
सिद्धार्थ बदला है
नरेंद्र दत्त बदला है,
वर्धमान बदला है,
बस बदलने से खुद को
संसार बदला है !





वो भी

वो भी करना है
और पाना है वो भी,
वो भी बनना है
और जाना है वहाँ भी,

उससे मिलना है
और दिखाना है उसे भी,
उससे आगे भी
और उससे ज्यादा भी,

उसके लिए भी
और उनके लिए भी,
उसके सामने भी
और उनके सामने भी,

इतने समय मे
और उससे पहले,
इसके बाद वो
और उसके बाद वो,

कब आराम है
की सांस अगली लूं
इस सांस के पहले !

Tuesday 21 December 2021

वासना

वासना का रंग क्या
गोरा है या काला है?
चमक की दरकार है
या खुश्क होती रंगत?
खुशबू है गुलाब की
या अर्क है ये कांख की? 

वासना की उमर क्या
कली है या फूल का?
नर्म–सी चुभन है या 
छुवन किसी कटार की?
दर्द की है इम्तिहान या
आंसू है यह प्यार की?
किसी और की ललक कोई
या चाह है उद्गार की?

वासना का रूप क्या
मूर्त या अमूर्त है?
राम की माया है या
शिव का ही विस्तार है?
राह का कंकड़ है या
राह है संज्ञान का?

वासना का भेद क्या
है भी या की है नहीं?

खुशी

तुम चली गई तो खुशी का
रिवाज़ भी चला गया,
हंसना, गाना, खेलना 
नाचना भुला गया,

शाम को गली–गली
घूमना चला गया,
साइकिलों से राह तेरी
टटोलना चला गया,

चली गई सुबह की ठंड
रजा़यियों की आड़ मे,
अब हवा है जोहती बस
दरवाजों के पास मे,

चली गई मुस्कान मेरे
चेहरे की नई–नई,
हंसी, ठहाके गूंजते
गम जो मिटाती गई,

चले गए हैं डर को मेरे
थामते जो हाथ थे,
चले गए वो पांव भी
जो चलते मेरे साथ थे,

चली गई मिठास मेरे
चाय की भी साथ मे,
गोलगप्पों का तीखा वाला
ज़ायका भी बात मे,

चला गया वो शादियों का
शोर–गुल तमाम ही,
पहचान मेरी बन गई
तुम्हारे साथ–साथ ही,

तुम भी चली गई
और वक्त भी चला गया,
खुशी का वाकया मेरा
तुम्हारे संग गुजर गया।

Tuesday 14 December 2021

कदम


अब कदम पीछे हटा लो
की वो नही सुनना जो कल था।

अब नही जंजीर को
कह चूड़ियां पहना सकोगे,
अब नही माथे का टीका
पोछ कर कुल्टा कहोगे,

अब न बोलोगे की बोली
है हमारी आग जैसी,
अब न घर की हर समस्या
पर हमे है डाह सी,

अब न तुम स्कूल जाकर
भी कहोगे गालियां,
अब न रूढ़िवाद को
पढ़ा सकोगे ढर्रा बना,

अब तो अपनी गलतियां
शांति से स्वीकार लो,
पीछे कदम हटा लो अपना
मन जरा सवार लो।


संकल्प


संकल्प होता सिद्ध
बाबा विश्वनाथ के नाम से
संकल्प होता सिद्ध
राम के गुणगान से,

संकल्प थे गैरों के भी
काशी रहे काशी नही,
संकल्प थे औरों के भी
की आए नही दलित कोई,

पर काज सियावर–राम का
जो हनुमान लला से सिद्ध हुआ,
धर्म की संस्थापना जो
गांडीव से समृद्ध हुआ,

संकल्प है प्रारब्ध हेतु
राम काज की राह मे,
सिद्धि है आरंभ हेतु
राम राज की चाह मे,

संकल्प हो अब और भी
की चांद पर जाए कोई,
संकल्प हो अब यह की
भूखा अब नही सोए कोई,

संकल्प हो की हर कदम 
अब देश पर कुर्बान हो,
देश ही हो मन–कर्म–वचन मे
जब तलक ये जान हो,

कोई भी ना हो बेआबरू
कोई स्कूल फिर न छोड़ दे,
हर बेटी जो भी जन्म ले
वो जिंदगी भी जी सके,

कोई मां की न हो मृत्यु–सय्या
जन्म देते ही समय,
ना कुपोषण छू सके
किसी अबोध को बनकर प्रलय,

संकल्प हो और ध्यान हो
भगत, बिस्मिल की वजह,
संकल्प मे ही मिल सके
सबको जीने की वजह,

संकल्प मे ‘बापू’ बसे हों
आखिरी कतार मे,
संकल्प मे ‘बाबा’ रमे हों
संविधान की छांव मे।



Thursday 9 December 2021

महल

तुम्हे महल हो 
बहुत मुबारक,
महल तुम्हारा ऊंचा हो,
राम चंद 
वन–गमन से पहले 
महल मे गाने–नाच हो,

फूल खिलेगा वहां,
जहां की
राम–सिया के
चरण पड़ेंगे,
तुमको माता कैकेई
महल की चारण
वहीं मिलेंगे,

जिसको महल की
इच्छा होगी,
उसको महल मिलेगा
जो मांगे वनवास
राम का
उसको महल मिलेगा,
जो मांगेगा राम
उसको राम मिलेंगे!

बात

तुम हो नहीं
तो कहने को भी
सुनने को भी
बात मै खुद से करता हूं,

तुम हो नहीं तो
नहीं समझ है
मेरी और किसी को भी,
मै अपनी बातें 
तुमसे कहकर
तुमको सोच के हंसता हूं,

तुम बात किए भी बिना
मेरी जो समझ, 
समझ कर बैठी थी,
मै उसी समझ की
समझ लिए
खुद को बहलाया करता हूं,

जो तुमसे कह दी
बात बड़ी–सी
बिना सोच के
मुंहफट हो,
मै उसी बात को याद करूं
और आगे–पीछे करता हूं!
अक्सर मैं तन्हाई मे
अब बातें तुमसे करता हूं!

शाम

ढलती हुई शाम
को मै देखता हूं
दिन बिताकर,
और तन झकझोर कर
कुछ अंडे मै और
सोने के निकालकर,
मुर्गी को झकझोर कर,
सूरज को हथेली से
उठाकर, कोशिश कर
मुट्ठियों मे बंद कर
ढलने से पहले रोककर
मै फिसलते देखता हूं
शाम को ढलते
मै राम की उंगली पकड़कर
राम पर चढ़कर
और उतरकर,
राम की दुनिया को
मुट्ठी मे जकड़कर,
मै पिरोना और फिर रोना
परस्पर चाहता हूं,
मुस्कुराकर राम को धरता,
फिर जानकर
कल की नौबत 
राम मै रटता,
कल के सूरज को
मै उठता, राम सा जलता
मै शाम की
कल की सोचकर
देखता हूं शाम को ढलता।

बादल

बादल के–से
यह विचार के
आते–जाते कतार,
यह उड़ते
हवा की गोद मे
डोलते लगातार,
कुछ पहाड़ों से
टकराकर
बरस जाते घनघोर
डूबा जाते संसार,

यह मन की आकाश–गंगा
के लाल, पीले
काले, हरे, नीले
और सुनहरे
उड़ते–उड़ते बादल।

Monday 22 November 2021

जल्लीकट्टू


 लेता पीठ का कूबड़
मै परस्पर इधर और उधर
दोनो मे है जंग
एक नई हुड़दग
आगे और पीछे
छूकर सींग के कुछ अंग
पाना चाहे जीवन रंग
और वो व्याकुल
बदलता हर घड़ी के संग,

जो कर चुका है
भीड़ मे बैठा,
मजे लेता
बहुत हंसता,
जैसे है लड़कपन
की ये बात–जल्लीकट्टू !

addiction

करते–करते, बार–बार
हो गया हूं आदि
मै बार–बार कर रहा
मै कर रहा बर्बादी,

वो खा रहा मुझको
जो खाकर, खा रहा हूं मै,
मै डर भी जाता हूं
पर परस्पर, कर रहा हूं मै,

जो जानता करते हुए
क्या कर रहा हूं मै,
मै कुछ न करता
मान जाता कर रहा है मै,

पर मै को करता जानकर
जो रुक गया था मै,
दूर खुद से हो गया था
देखकर संशय,

अब वक्त जब बचने लगा
तब मन लगा है व्यर्थ मे,
जो चाहता था न ही करना
उसके ही प्रारब्ध्य मे,

जो कर रहा था
वह ही जड़ था,
कर्म के हर मूल मे,
तो छोड़ आखिर
क्यूं चला मै
कर्म के जूनून मे?

एक आदि था मै जो
वही आदि रहा अज्ञान का!
राम की करनी बढ़ाने
राम से अंजान था!

consecrated

नग्न हो तुम 
नग्न हो तुम
राम के दरबार में,

तुम थे सुसज्जित
मोह से,
अंकुश बहुत से
साथ लाए थे,
आडंबरो की भीड़ मे
खुद को भुलाए थे

अब तन के 
पट को त्यागकर, 
हो गए निर्वस्त्र
काम–क्रोध–लोभ से
जो पनप रहे थे,
पहचान मे छुपकर
चिपके हुए थे आवरण से
‘मै’ बड़ा बनकर,

अब मग्न हो तुम
मग्न हो तुम
राम के दरबार मे,
जब नग्न हो तुम
नग्न हो तुम
राम के सत्कार मे!

आईना

जब आईने को देखता हूं
देखता हूं कुछ अधूरा–सा,
कुछ रह गया है नाक पर
कुछ गाल पर भी रह गया,

कुछ मन मे है, कुछ मन मे था
कुछ आ गया, कुछ आया नही
कुछ कर दिया, कुछ किया नही
कुछ पा लिया, कुछ पाया नही

हर पल में बसा है मेरे
कुछ दास्तान की चाह
जो लिखा हुआ था पढ़ा नही
कुछ लिख लेने की चाह

आईने मे ढूंढता हूं, मै अधुरपन,
अधूरे ज्ञान की मै पूर्णिमा मे
ढूंढता चंदन,
चंदन की महक मे, बाँवरा हूं,
मै ढूंढता मकसद का जीवन
भूल कर जीवन,

मृग बना मन,
स्वर्ण का तन
पांव मे थिरकन,
आईने के सामने
है राम को छलने
पर राम जैसा आईना
पहचानता मुझको,
बाण–सा है भेद देता
मारीच सरीखा मन,

आईने मे ढूंढता हूं, 
जो मै होना चाहता हूं
पर आईना तो है बना
दिखला रहा सदियों–से
मुझको और सबको
जो था मै नहीं, 
जो हूं मै !




Saturday 20 November 2021

इश्क

पागलों की तरह
तुमसे इश्क करने वाला
कल न आया कभी 
ढूंढते तुमको यूं
तो किसकी इबादत की
तौहीन करके
तुम खुद को वफ़ा की
संगेमरमर कहोगी?

किसकी शिकायत करोगी
खुद से लड़कर
किसकी नज़र मे
खुद को ऊंचा कहोगी,
भूल जाओगी किसके
मखमली बातों को
किसकी तंगदिली को
नुमाया करोगी?

किसको कहोगी
की फोन न करे
किसको फेसबुक से
हटाया करोगी
किसकी तुम खुशी को
उसी की समझकर
तुम जलने लगोगी
कसमसाया करोगी?


जिससे तुमने चाहा है
बेहतर किसको
जिसकी तुम मुहब्बत को
खुद पर चाहती हो !
उसको बनाने को
बेहतर उसी से
किसे तुम हर बखत
आजमाया करोगी?

कल न पागलों–सा कोई
तारीफ कर दे,
कोई तुमको हंसाने को
दो जहां एक कर दे,
किसे गालियां तुम
जी भर के दोगी,
किसको गाहे–बगाहे
झांक लोगी निकल के
किसको तुम मुहब्बत से
नफरत करोगी?

बीत जायेंगे दिन
चार ये भी
चार दिन मे,
चार किस्से जुटाकर
चार दिन तक कहोगी,
चार नाखुश रहोगी
चार दिलफेंक होगी
पर जब वफा की 
तारीफ होगी
तो किसे याद कर
आंख को नम करोगी?


Thursday 18 November 2021

बहस

तुम आ जाती
और मिल जाती,
तो दर्द मेरा 
कुछ दूर होता,

तुम मिलकर
हाथ पकड़ लेती,
आंखों से मुझे जकड़ लेती
जज्बात मेरे कुछ नम होते,

यूं तो तुमने बहुत कहा
यूं तो मैने बहुत सुना,
पर बिना कहे भी कुछ बाते
जब हममे–तुममे हो जाती,
तो भाव मेरे कुछ बढ़ जाते।

Wednesday 17 November 2021

लीलाधर

16 कलाओं वाले
आधुनिक हिंदी के श्री कृष्ण

तुम रास–रंग के वादक
तुम युवाओं के अभिप्राय
जब वासना मन पर आच्छादित
तुम प्रेम के अंकुर प्राण

तुम चलचित्रों के कवि
तुम अव्वल प्रस्तुत कर्ता
मुनव्वर कहते तुम शावक
पर तुम्ही हो गोवर्धन धर्ता

तुम राजनीति के प्रदर्शक
पर नही हो उसमे डूबे,
तुम त्योहार पे घर भी आए
पर नही कभी ललचाए,

तुम सारथी हो भीड़ के 
भारत के पुत्र तुम,
थे कृष्ण के बस अर्जुन
पर लाखों के गुरु तुम,

तुम YouTube पर बताते
गीता सरीखी इतिहास,
कवि चर्चा का भाग बनते
लाते बात में भी रास,

महारास तुम हो करते
आधुनिक तकनीक से,
थे कृष्ण जैसे लीला
करके दिखाते तुम !



Monday 15 November 2021

चर्चा

चर्चा हुई, चर्चा हुई,
बहुत आज चर्चा हुई,
कुछ तुम कहे
कुछ हम कहे
बात बढ़ती चल गई,

चर्चा हुई, चर्चा हुई
भूल गए बात को,
पर याद रहा बात कैसे
नाप गई औकात को?

बैर का पेड़

जिस रास्ते पर
चलते थे,
खेलते थे, खाते थे,
जिस रास्ते पर
कर के टट्टी,
हम लज्जा में मुस्काते थे,

उस रास्ते पर आज है
बहुत फैला पेड़,
वह रास्ते पर आज फलते
मीठे–मीठे बेर,

यह बैर का जो पेड़ है
यह कब लगा और बढ़ गया,
कब से हमने छोड़ दिया
रास्ते पर निकलना,

कब दिलों की बैर हमने
राम के घर में रखा,
कब–से हंसना–मिलना
गुनाह ही समझ लिया,

बैर का पेड़ उग आया है
अपने आप ही, 
कांटे बिछाकर राह मे
फल लगाता मीठे ही!

बवंडर

एक बवंडर है उठा
तन के मंदिर धाम मे,
यह बवंडर है बड़ा–सा
विचारों के संग्राम मे,

यह बवंडर तन का लेकर
उड़ चला है, धूल–सा,
यह बवंडर एक तरफा
एक गया है भूल–सा,

यह बवंडर मै पे सज्जित
मै ही इसके अश्व हैं,
यह बवंडर है हवा–सा
सिर ना इसके पैर हैं,

यह बढ़े तो और को
करने ही लगता पददलित,
यह बवंडर आइना–सा
खुद को देखे हर जगह,

खुद को पाए न कभी जब
यह बड़े आवेग मे,
खुद को करता है ये लज्जित
स्वर्ग के ही द्वेष मे,

स्वर्ग इसका है मनस मे
उसको ढूंढे स्वर्ग मे,
राम रखकर यह हृदय का
राम ढूंढे देश मे,

कब थमा है यह बवंडर
जो सत्य से ही दूर है,
यह पड़ा है कल्पना मे
मद मे अपने चूर है,

राम की बयार इसको
ला सकेगी धरा पर,
यह राम खुद मान बैठा
क्या नाम ले यह राम का?

Sunday 14 November 2021

गुड़चूंटा

मैंने भी गुड़चूंटा देखा
लपट के पकड़ को पकड़े देखा

लसर–लसर जब
बहुत हो गया,
चाट–चाट कर
लड़ते देखा

इधर घुमाया, उधर घुमाया
पर मै पकड़ छुड़ा न पाया,
उसको जितना दूर भगाया
और जबर से लपटे पाया,

उसको पता थी
बहुत–सी बातें,
खुचर करने की
सारी चाहतें,
उसको जब–जब
जो समझाया,
उसमे नुक्ता
उसने बताया,
पर ज्ञान को जब मै
नमन किया तो,
उसने पीछे
हाथ हटाया

जब दूर हो गया
मै थोड़ा–सा,
उसको मैने
पीछे पाया।

मैने उसमे 
खुद को देखा,
मै था वो तब
जैसा देखा,

मन की गति है
बचने वाली,
बैठ के बातें
करने वाली,
उसको किसने
कब समझाया,
मन तो है एक गुड़चुंटा
उसने भी गुड़चुंटा देखा।

Wednesday 10 November 2021

लकीर

मिटाती हो, बनाती हो
मेरी तकदीर हाथ पर,
तुम प्यार करती हो मुझे
देती नही हो साथ पर,

हटाती हो फोन मे से
मेरा नंबर, हटाने के लिए,
दिलों में याद रखती हो मगर
तकिया बनाने के लिए,

मेरा भी जिक्र करती हो
बताने के लिए, जताने के लिए,
मेरी भी फिक्र करती हो
मुझे आगे बढ़ने के लिए,

मुझे पानी की लकिरों
की तरह,
बनाकर भूल न जाती,
पत्थर पर खचाकर
खुद की धारें
नोक करती हो,

मुझे भुलाकर चैन से
तुम सो नहीं पाती,
मुझे तुम याद आती हो
मुझे जब याद करती हो !

Sunday 7 November 2021

विचरण

करता है तो करने दो
किसने उसको रोका है,
मै देख रहा हूं बस उसको
वो किसको–किसको टोका है

मै देख रहा हूं, आगे–आगे
वो क्या–क्या कर के देखेगा,
वो किससे जाकर प्रेम करेगा
किससे लड़कर देखेगा,

वो कौन–सा रोग बताएगा
अपनी छोटी–सी गलती को,
वो कौन–सी दवा ले आएगा
आब–ए–ज़मज़म की धरती का,

वो स्वाद का खाना खाने को
कितनी रोटी छोड़ेगा,
वो अपनी बंद किताबों पर
कितनी सीलन जड़ देगा,

वो थोड़ा इधर चलेगा 
वो थोड़ा उधर चलेगा,
वो अपनी छोटी कसरत
संसार की समझ, समझ लेगा,

मै देखूं कब तक करता है
जो आज वो करने बैठा है
जो आज है लगता बहुत बड़ा
‘मन’ उसमे कब तक रहता है ?


सन्नाटा

सन्नाटे–सा पसर गया है
आज तेरे जाने के बाद,

तुम होते थे तो चौराहों पर
हंसी–ठिठोली होती थी,
तुम होते थे तो दिन मे होली
रात दिवाली सजती थी,

तुम होते थे तो सेल्फी लेकर
"status" सभी लगाते थे,
तुम होते थे तो डेग लगाकर
गाने जोर बजाते थे,

तुम होते थे मम्मी उठकर
रोज टहलने जाती थी,
तुम होते थे तो पापा अपना
फिकर भूल मुस्काते थे,

तुम होते थे तो हर मजाक पर
परिवार साथ मे हंसता था,
तुम होते थे तो कठिन वक्त भी
‘Cake–walk’ सा लगता था,

तुम हंसी ढूंढ लेकर आते थे
छोटी–छोटी बातों मे,
कोई खेल–मदारी क्या देगा
जो मजा तुम्हारी यादों मे,

तुम होते थे तो लड़ने वाले
साथ मे हाथ लगाते थे,
तुम होते थे तो खाने वाले
पूड़ियाँ मांग के खाते थे,

तुम होते थे चाय–पराठे
चुस्की लेकर खाते थे,
तुम होते थे तो सुबह जलेबी
शाम को रसगुल्ले लाते थे,

वो सुबह को छत पर योग करना
बातें करना बड़ी–बड़ी,
वो जीवन की planning करना
‘निष्कासन’ करना घड़ी–घड़ी,

वो रात को अपना दर्द सुनाकर
सोफे पर ही सो जाना,
वो दही–मलाई रोज का खाना
टट्टी करना जभई लगी,

तुम होते थे खुश रहने की
कला सभी को आती थी,
तुम होते थे तो हंसते–हंसते
हफ्ते भी एक पल मे बीते जाते थे

अब नहीं तुम्हारा सुबह का हंसना
शाम का जिंदादिल करना,
अब नहीं तुम्हारा गाना गाना
रात का भोजन संग करना,

भूख–प्यास सब बदल गया है
साथ तेरे खाने के बाद
अगली बार तुम कब आओगे
आज चले जाने के बाद!

Saturday 6 November 2021

माता मंथरा की दीवाली

माँ मंथरा प्रसन्न चित्त
राज धर्म कर रही,
राम मिले आजभर
विदा उन्हें कर रही –

"वलकल वस्त्र पहन लो राम,
सीता को संग ले लो राम
लक्ष्मण भी संग जायेगा
साज तिलक सब तज दो राम,

वन मे रहोगे चौदह–साल
देखोगे भारत का हाल
मुनि–तपस्वी जानेंगे
वनचर पांव पखारेंगे

केशों को बढ़ने दो राम
कुंजों मे बंधने दो राम
नगर के सुख से वंचित हो
पांव मे कांटे चुभने दो

चेहरे पर मुस्कान रहे
भाई भरत का ध्यान रहे
राजा बन राज्य संभालेगा
जनता में जमने दो राम

तुम मेरे नही तो क्या मतलब
भरत सही, बढ़िया है सब
मां कैकेयी भी तुम्हारी है
वह राज–माता की अधिकारी है

उसको भी खुश कर दो राम
हमको धन्य भी कर दो राम
महल का मान बढ़ाएगी
ख्याति जग तक पहुंचाएगी

भरत–सा राजा क्या होगा
दशरथ का अनुचर क्या होगा
युद्धों मे नाम कमाएगा
प्रजा रंजन में लग जायेगा

हम महल मे दीप जलाये
खुशियाँ खूब लुटाएंगे,
भरत करेगा राज मगन
हम उसके चारण गायेंगे !"

राम ने कहा "तथास्तु!"
मनोकामना तुम्हारी पूरी हो,
आनंद को त्याग कर सुख भर लो
माँ, राम से तुम ही धनी रहो,

जग ने मांगा था राम का नाम
तुमने मांगा राम का धाम,
भरत करेंगे राम का काम
भावना मनुज की उसके नाम,

मै चला भ्रमण के पथ पर
राज करो तुम जी भर के !

आशीर्वाद

राम आप पर कृपा करें !

वाणी में मधुरता आए,
विचारो मे सरलता आए,
संवाद में संवेग हो,
कर्मों मे आवेग हो,
व्यवहार मै समरसता हो,
मौजों मे अल्हड़ता हो,
जिससे मिले वो खुश हो जाए,
देख के आपको दिन बन जाए,
चेहरे पर मुस्कान रहे,
आंखों मे इंसान रहे,
हाथ उठे तो साथ के लिए,
बात बढ़े तो कल्याण के लिए,
यादों मे सिया–राम रहें,
हृदय–कुंज हनुमान रहें।


Tuesday 2 November 2021

बेरियाँ

छोटी–छोटी, लाल–लाल
चमकदार, रसीली
और लुभावनी
बेरियाँ मनोहारी,

डालियों से लटकती
झुंड–की–झुंड,
एक के पास एक
काली–लाल मकरंद,

हमारा ध्यान खींचती
नीची और उचकती
हवा में यूं लहराती
पास आती, दूर जाती
डालियों पर लटकती
पर हमारी बन जाती
ये मनोहर बेरियाँ,

हम उचक–उचक कर
कूद कर,
कुछ छरको मे लपेटकर,
नख और धागों में बांधकर
पत्थर–कंकड़ फेंककर
खींचना चाहते नीचे
ये ललचाती बेरियाँ !

पर हाथ नहीं आती
और दूर नहीं जाती
बस हवा मे ही लहराती
ये मधुकण की चासनी

कभी–कभी मिल जाती
एक–दो खुद टपक जाती
या हवा के हल्के झोंखों से
टूट के गिर जाती
ये सरल–सी बेरियाँ,

पर डर से 
या फिर थकन से
जब हाथ नहीं आती
तो खट्टे अंगूर–सी
लगती हैं ये बेरियाँ,

ये मेरे मन की 
मधुर–सी तरंग
उठती–गिरती बेरियाँ,
राम से उपजी
राम से पहले
मुझे लुभाती बेरियाँ!!



Monday 1 November 2021

बेरुखी

ये बेरुखी है
कुछ दिन की,
कुछ दिन का ये
सवाल है
तुमको मुझसे
और मुझको तुमसे

तुम थे जो नही
कभी जो
किसी भी तरह के
तुम करते तो थे
ना वो बातें

मै थी मुस्कुराती
तो तुम मुस्कुराते
मेरे होंठों को पढ़ते
मुझको सुनाते

मै थी पीती
रात के नम से
शबनम
आंख से मै तुम्हारी
खुद की आंखों मे
भिगोती,
सोख लेती तुम्हारी
गम और अवसाद
ना रोती,

पर यही है
जुस्तजू की,
मेरी उंगली
पकड़कर
थाम के हाथ
किसिका
तुम चले क्यूं गए,
छोड़कर मुझको
तनहा,

बेरुखी है
बखत की,
बखत से कटेगी
मै तो चली हूं
बहुत दर से मिलकर
हर दर से घूलकर
फिर तुमसे मिलूंगी

बेरुखी ये तुम्हारी
तुमसे हमारी
तब तक रहेगी
तुम्हे भी सालेगी
मुझे भी सालेगी !

Sunday 31 October 2021

लाठी

लाठी एक है बहुत सहारा
लाठी लेकर चलता ग्वाला
लाठी लेकर आए बाभन
लाठी लेकर चलते ‘बापू’

लाठी बड़े है काम का
लाठी सबके नाम का
लाठी सबकी अलग–अलग
लाठी से ही कार्य– कलाप

पर लाठी लगे कुरूप
ना ही रंग न रूप
लाठी उसकी गंदी है
अपनी लाठी चंगी है

मै अपनी लाठी
क्यूं तोड़ ना दूं,
क्यूं कुरूप के
संग चलूं?

पर लाठी टूटे
टूटे गर्व,
लाठी टूटे
टूटे तन–मन,

अब लाठी जोड़ के
चलना है,
लाठी पकड़ के 
बढ़ना है,

अपनी लाठी
अपने हाथ,
अपनी लाठी
अपना साथ।



Thursday 28 October 2021

चाभी वाला बंदर

चाभी वाला बंदर
चाभी देने से चलता है,
अभिमानी वाला बंदर
गाली देने से चलता है,

चाभी वाला बंदर
कुछ देर चलता है
और बंद हो जाता है,
अभिमानी वाला बंदर
चलते हुए गाली देना
सीख जाता है,

और अब वो खुद को
गाली देकर आगे चलाता है!

कल

कल जो हुआ
वो भूल कर
आगे बढ़ो!

कल जुबान चली
बस मे न होकर
खुद–ब–खुद,
कल कह दिया
जो न सोचा
शब्द–ब–शब्द,
कल के शोक को
दफन कर आगे बढ़ो!

कल तुम थे अज्ञानी
और मै था अभिमानी
तुम चुप ही रहे 
अपने अभिमान मे
मै महटिया भी गया
अपने अज्ञान मे
कल का नंबर लगा
फिर से बातें करो!

कल तो डर था बहुत
हल्की–सी बात का,
कल तो थे तुम खफा
कुछ बड़ी बात का,
आज छोटी–सी
लगती है,
बात वहीं रह गई
साथ आई नहीं
कल को पर्दा लगाकर
रुखसत करो,
कल को भूल ज़रा
और आगे बढ़ो!

Wednesday 27 October 2021

राधा

मुरली की धुन से
राधा है थोड़ी नाराज़,

जो बजते ही वो
आ जाती थी
काम–काज सब छोड़ के,
जो बजते ही वह
खो जाती थी
सखियों से रुख मोड़ के,

आज उसी मुरली से डाह मे,
है मुरलीधर से दूर वही
उसकी धुन को शान्त करे
की मुरली है किस काम की?

मोहन फिर भी मुरली वाला
बजा रहा है मुरली को,
अपने चेतन को संवारता
और पुकारता राधा को!


Saturday 23 October 2021

Princess

तुम कहती हो तो
सच लगता है,
तुम कहती हो तो
लगता है असर होगा,

तुम बैठी हो तो
सब शांति–से
अपने ही घर पर
कुर्सी के बिना
जमीन पर बैठ जाते है,

तुम चुप हो आज तो
सब मौन हैं और
शांत–चित्त हैं,
बिना कहे भी 
बोल सकते हैं
ये आज समझ आया,

तुम आगे आई हो तो
पीछे वाला मुस्कुरा रहा है,
उसकी लाठी अब आगे
खींचने वाली
खुद किसी की लाठी
जो बन गई है,

तुम मुस्कुराती हो तो
लोग अपना गम भुला
कर भूल जाते हैं
खुद को भी और
गम को भी,
कब शोर मे खुद की
चर्चा सुनने को
बेताब नही हैं,

तुम चलती हो तो
वो बेटी, बहन और
मां का झरोखा देखने 
आ जाते हैं,
विदा करने और लियवाने,
पर बस विदा करने,
इस बात की चिंता बगैर
की घर ठीक से पहुंच जाओगी,

तुम्हारी आवाज़ मे
रज़िया सुल्तान की
झिझक नही है,
दिद्दा की छुपन
अहिल्या की तपन नही है,
नही आखिरी दांव है
झांसी की कोई,
नेहरू के वारिस का
टशन नही है,

तुम आराम से आई हो
और आराम से चलोगी,
उन सब की पहचान बनकर,
जो अब तक
गुमशुदा थीं अनजान बन
और घूम रही थी
आज़ाद बनकर,
और समझ नही पा रही थीं
क्यूं लोग कर नही रहे वो 
बहुत आसान है जो
बस एक झाड़ू उठाने
और लगाने जैसा?
दूध खौलने और
पौधा लगाने जैसा?
घर को सजाने जैसा
झड़पने और मुस्कुराने जैसा?
राम के वन जाने जैसा !

Friday 22 October 2021

गांधी–युग

यह गांधी–युग नही है,

अब atom bomb है
सबके पास,
चलाने वाला नही
बनाने वाला ही डरा है,

अब पढ़ने वाले पढ़ सकते है
डर कर नहीं, ना छुप कर,
सलमा का सपना अब
बदल कर आता है,
अब बस गोलियों की
बदलनी है दिशा,
बाज़ार जा सकते है
बस उंगली ही पकड़कर
लड़कर नहीं।

अब दलित की 
थाली ही है अलग
स्कूल एक है
और खाना बनाने वाली भी
कुछ स्कूलों मे
पाखाने भी साफ
करने को सरकार चाहती है
उठाकर झाड़ू पहुंचना,
जल लेकर
और पेड़ के नीचे पढ़ाना
मंदिरों को उठाना
फैलाना और जताना
धर्म को खुलकर अपना
और सबका

अब विश्व–युद्ध से
पहले है कई युद्ध
कोरोना, वन और समुद्र
बात है घड़ी–दर–घड़ी,
कभी यहां कभी वहां
और कहां और कहां !

अब लोग गांधी की
राह ही पर
निकल चले हैं
आगे बहुत बढ़कर,
गांधी को भूलकर।
अब गांधी आम हो चले हैं
गांधी को सब जान 
और मान चले हैं,

गांधी का युग
चला गया है,
गांधी–युग
अभी आया नही है,
पर जो भी है,
पहले से है बेहतर

बापू ने सब बदल दिया है।


मोहसिन

वो कौन सी दरख़्त का
फूल हो तुम
जिसकी महक से
गुलिस्तान सारे
उमड़े हुए हैं,

कुछ चिराग की–सी
रोशन हो
किस चौखट से तुम
की नूर के 
सहर से फैले हुए हैं,

तुम होती तो
कब का ही अवसाद
पिघल जाता,
कोई कविता नई लिखता
मैं गीत गुनगुनाता,
मैं बात और रात
को अलग कर नहीं
देख पाता, मैं सुबह
ओस की बूंद से उठाता,

मै कहता और सुनती तुम
कुछ उड़ती तितलियों की
कुछ चिड़ियों की गीतों
की बातें,
और कुछ यूं हुआ,
और कुछ यूं की
कुछ उधर था सही और
कुछ इसका गलत,
वही जो चल रहा है
देखते हुए हो जाता,

मोहसिन थी तुम
रमजान की रात चांद,
सब शांत है तुम्हारे साथ
और गुदबुदाहट–सी
तुम्हारे जाने के बाद।

Wednesday 20 October 2021

कल फिर

कल फिर मुलाकात होगी
तुमने कह दिया फिर
जैसे कहा था कल
बहुत पहले,
और आज आई हो मिलने।

और मै हो गया खुश
कुछ जानकर तुम्हे,
और कुछ जानकर
तुम्हारी फितरत को
और सोचकर
उस कल को
जब आओगी तुम 
मुझसे फिर मिलने!

कान्हा


थोड़ा–थोड़ा देकर सबको
कोई देश बचाने निकला है,
थोड़ी इसकी थोड़ी उसकी
करता बहुत फिकर,

अब दुर्योधन की नाव की
लेकर हाथ पतवार,
कान्हा आया है बीच भंवर,
झेलने को बवंडर
बड़ी PhD कर
निकला नई डगर

कान्हा करता नया समर
कान्हा करता महासमर।


महात्मा

बापू ने कहा –"सरदार !
आओ तुम भी बैठो,
धरने पर,
और तुम भी जवाहर !"
कोई आगे तो ले जाए
यह अनशन,
मेरे ऊपर जाने पर!

कही उन्होंने 
गंभीर–सी बात,
पर हँसकर,
और टाल भी गए
सभी हँसकर।

सरदार और जवाहर
ने कहा एक स्वर–
“बापू ! आप तो ठहरे महात्मा,
आप की है राष्ट्र को फिकर
हमें कौन है सुनता,
हम रहें या ना भी कल।"

बापू कैसे बने महात्मा,
पैदा हुए थे या
कर्म बहुत किए
चुना था उन्होंने क्या सत्य?
या फिर सत्य ने उनको?

Saturday 16 October 2021

होनी

जब तक होता नहीं
तो लगता है होगा नहीं

जब हो जाता है,
सब हो जाता है
सब मिल जाता है
सब खो जाता है

पहले से करके पहल
जब रोक सको कुछ 
होने से,
तो कर लो कुछ तो
प्रयास तुम भी
तो बच जाओगे रोने से।

मेला

मेला लगा है
देख लो।

कोई बंदर नाचेगा,
कोई खेल दिखायेगा
चढ़ कर रस्सी के ऊपर,
कोई गुब्बारे की डोर पकड़
ऊपर बहुत उड़ाएगा,
कोई ढोल बजा, कोई सीटी
कोई चरखी नचा,
कोई नाव उड़ा
करतब खूब दिखायेगा
दंग कर देगा,
तरह–तरह के खेल दिखा

मेला घूमके तुम
थक लो।

कोई बेचेगा गोलगप्पे
कोई रसगुल्ले, कोई जामुन
कोई चना कुरमुरा भूनेगा,
कोई झालमुड़ी मे नींबू निचोड़
तीखा जरा बनाएगा,

मेले मे आए हो,
चख लो।

कोई भक्त विचित्र बड़ा होगा
जो खुलके–झुमके नाचेगा,
आरती होगी थाल सजा
सब उसमे पैसा डालेगा,
कोई गाय तो कोई कुत्ते को
घास और रोटी डालेगा,
मंदिर की पहली सीढ़ी पर
सौ बार ही शीश नवायेगा,

मेला बहुत अनोखा है,
सर माथे लगाकर
अपना लो।



Wednesday 6 October 2021

चिड़ियां का घोंसला

चिड़ियां अपना घोंसला
खुद बनाएगी,

तुम ना दो धागे
तुम ना दो टहनियां
घास के तिनके दबाकर,
चिड़ियां रोशनदान पर
चढ़ जायेगी,
रोशनी मे पिरो देगी
कुछ सीधे कुछ उल्टे
और ची–ची कर
जताएगी.....

चिड़ियां अपना घोंसला
खुद बनाएगी,
बार–बार उसी जगह
पुराने मे नही
वह रहेगी,
वह नया बनाएगी,
खुद बनाएगी।

लंका–दहन

लंका कौन जलाएगा?

एक उदंड बानर
पूंछ की आग लेकर
भागता–पराता जान
लेकर हथेली पर

छलांग लगाकर भागता
चिल्लाता, चीखता,
हाहाकार मचाता
किसी की परवाह न करता
अपनी जान की खातिर 
बेचैन, बेसुध, राम–राम
की लगाता गुहार

घरों के परदे–दीवारों पर
खिड़कियों से घुसकर
दरवाजों से निकलकर
लटककर, झपटकर
मेजों पर, पलंग पर
बगीचे मे, किचन मे
रानीवास मे, दरबार मे
मंत्रियों, संतरियो, सेनानायक
मेघनाथ, रावण, अक्षय कुमार
सबको धकेलकर
पेड़ उखाड़कर, 
कुछ गुंबद गिराकर
कुछ खंभे गिराकर
फर्श की चटाइयों को
उधेड़कर, 
रंग रोगन बिगाड़कर,
मंदिरों के भगवान
धराशयी कर, 
हर सुरमा को पछाड़कर,
मारकर और लज्जित कर
चकमा देकर,

समुद्र की ओर जाता बंदर,
राम–राम चिल्लाता बंदर,
कैसा अजीब बंदर,
ये है बंदर कैसा मस्त–कलंदर
एक पूंछ की खातिर 
डर गया, 
जान का लाला पड़ गया,
जल गई पूरी लंका,

बंदर था या कोई देव था?
डरा था या मजे कर रहा था?
जान बचा रहा था या
लीला कर रहा था?

ये किसे उसने
बानर समझ कर
छोड़ दिया?

लंका जलाकर गया
या जल गई लंका
रावण की रावण के हाथों ही !
अब कौन रावण को मारना
चाहेगा, 
रावण तो मर गया,
अब बस लंका–दहन ही
याद रह जायेगा?

रावण तो फिर भी मरेगा,
पर गांधी लंका जलाकर
बानर बनकर ही मस्त रहेंगे!



Tuesday 5 October 2021

Who is thinking about you?

लोग क्या कहेंगे?
समाज क्या कहेगा?
कौन मेरी अस्मत
कब, कहां लूट लेगा !

सब वक्त का हिसाब
सब इल्म की किताब
सब अनुभवों के नुस्खे
सब आंखों के जवाब
पूछ मुझसे लेंगे!
लोग क्या कहेंगे?

यही जानने को
टटोला मैने मन को
कल्पना के पटल पर
पाया सभी जन को
देखते मेरी तरफ
रख रहे मेरी सनद।

मै वक्त जरा ढूंढ के
सोचा राम से मिलूं जरा,
लोगों की कहानियां
आराम से सुनूं जरा,

चलते–चलते रास्ते मे
मिल गए मामा जी,
दवा लेने आए थे
गिर गए थे नाना जी,

खाने को मिठाई मै
मौसी जी के घर गया,
वो शोक मे थी व्याकुल
की प्रमोशन कैसे रुक गया,

चाचाजी के घर गया मै
चीनी मांगने के लिए,
वो लड़ रहे थे चाची से
तरकारी रोटी के लिए,

अब छुपा न जा रहा था
जब मैं नहीं था सामने,
मै साइकिल उठा निकल
मित्र मेरे ढूंढने,

एक मिला चौराहे पर
वह ताड़ रहा लड़कियां,
एक पढ़ रहा था डूब के
गणित समझ न लिया,

एक मित्र के घर गया
वो लड़ रहा था भाई से,
उसको जामुन नहीं मिला
तो ऊब गया मिठाई से,

कुछ और सोचकर के मै
नदी तरफ चल गया,
नाव का ही सैर करूं
चिड़ियां बना उड़ गया,

वहां देखा बैरिकेड
मोदी जी का आगमन,
सब selfi लेने के लिए
फोन मे ही हैं मगन,

फिर सोचा घाट पर
या मंदिरों की थाह लूं,
वहां देखा कोई couple बैठा
सोचे कब की मै चलता बनूं।

वहां से गया मै फिल्म
देख लूं कोई,
पर नाक–मूंह बंद कर
कोई क्या ही मजा ले सके?

फिर आया घर पे मै
किसी दोस्त को ही फोन करूं,
Weekend पर हों घर कोई
उसको थोड़ा disturb करूं,

एक को जो फोन किया
उसका पेट गड़बड़ था हुआ,
दवा लेकर गैस की
आराम से पड़ा हुआ,

एक मित्र बोला
छुट्टी दो दिन ही क्यों है
Weekend पर,
पांच दिन होती अगर
दारु पीता और घर पर,

अब ना सब्र ही रहा
तो फोन किया ex को,
उनको मेरी थी क्या पड़ी
जो हुई नही Phd,

सब लगे थे जीवन मे
समस्या लिए छोटी–बड़ी,
और मै पड़ा था भ्रम मे
लोग क्या हैं सोचते,

कोई न सोचता है मुझे
ना मैं ही किसी और को,
पर भरम मेरा बहुत बड़ा
जो ढक लिया है मुझी को।

कल न होगे तुम तो
दुनिया चलेगी रफ्तार से
कोरोना से ही क्या रुकी!
जो रुकेगी तुम्हारे बाद से?

कुछ करो और करो
Busy रहो काम से,
राम–राम नाम लो
बच चलो संताप से !



Sunday 3 October 2021

लीलाधर

लीला करने वाले
करते लीला जानकर,
खेलते–खाते, खेल रचाते
खेल को खेल भी जानकर,

कर्म को करते
पर आशक्त न होकर,
पर कर्म करे तो
सर्वज्ञ न होकर,

कर्म करें,
फल–विमुख न होकर
फल भोगें
कामातुर होकर,

ना कर्म बड़ा,
ना फल अंतिम
जीवन भाव मे
जीवन अंतिम

जीवन जाने को चाहे मन,
पर जीवन नहीं
मन मे बंधित,

मन तो जीवन का
मन–रंजन,
जीवन का है बस
अंश महज़,

वह किधर–किधर
भी घूम तो ले,
पर लीलाधर को
क्या बुझे?

कर लीला और धर मुरली
वो समझ बिना भी
मिले–मिले!

Wednesday 22 September 2021

अमरूद का पेड़

अमरूद का पेड़
खुला हुआ है,
और उसकी
हर डाली
अलग–अलग होकर
झूमती है,

पूरा पेड़ ही
मस्त हो जाता है,
बरसात मे,
सबकी किस्मत
उसके हाथ मे,
सब अपने मे मगन
कोई पानी से,
कोई हवा से
और कोई उड़ाकर घोसालों
आज है उन्मुक्त,
कल का सूरज,
वो ही देखेगा
जो आज पूरा झूम लेगा
लग हवा के साथ,

वो टूट जाएगा
जो अकड़ कर
रह गया होगा,
पर अमरूद का पेड़
बचा रहेगा,
बची टहनियों मे
फिर अमरूद लगेंगे,
मिलके सारी डालियां
बनकर साथ रहेंगी
अमरूद का पेड़।


अधूरा

कुछ अधूरा है
जिसे कर रहा हूं पूरा
अपनी कलम की नोक से,

रह–रह कर
खींच देता पाहियां,
भर देता माथे
‘ध’ और ‘थ’ के,
भूलकर या जानकर मै,
और कर देता पूरा गोल
‘a’ और ‘o’ को,

रंग भर देता
‘b’ और ‘क’ के पेट मे,
अलग कर देता
बंद कर कोष्ठक मे
कुछ पुराने से
नए topics को

अधूरा है शब्द या 
व्यवहार मेरा,
कमी है लिखावट मे
मेरी तब नही थी सही
और अब नही लगती सही

अधूरी है कौन सी दास्तान 
मेरे जीवन की
जिसे अपने ढंग के
नए रंग ओढ़ाकर,
कर रहा है मन सुसज्जित
बार–बार, बार–बार।

Monday 20 September 2021

पंखा

पंखा नही चल रहा है
पंखा होते हुए भी,
नही चला रहा है
ये तो पंखे वाला मूर्ख है।

पंखा नही है जिसके पास
वह तो अव्वल मूर्ख है,
गरीब है, नादान है
निकम्मा है, बेईमान है
अज्ञानी है, असमर्थ है,
मेरे हैसियत के नीचे है,
मेरी समझ के बाहर है।

पंखा नही है जिसके पास,
उसके पास विचार क्या हो ?
पंखा नहीं है जिसके पास
कोई उसके पास क्यूं हो?
वह पंखे बिना जो बैठेगा
तर–बतर पसीने से होगा,
हवा न होगी उसके पास
तो कितना बुरा वो महकेगा?

छी: ! ये कैसा पढ़ा–लिखा सा
इसे पंखे की भी समझ नहीं,
आधुनिक समाज को क्या देखा
जो पंखे की भी कदर नहीं?

मै बिन पंखे के जीवन मे
एक पल भी जिंदा ना बैठूं,
जिसके घर मे पंखा ना
उसके घर भी न जाऊं !
उस दुकान से क्या खरीद करूं
जो पंखे के बिना ही चलता है,
उसको मै सौदा क्या बेचूं
जो पंखा बिना सब सहता है।

मैने सीमित खुद को करता हूं
बस पंखे के ही इर्द–गिर्द,
वह काम नहीं मै कर सकता
जो पंखे से हो दूर–दूर !
मै शांति–निकेतन में जाकर
पढ़ना छोड़ भी सकता हूं,
मै रामचंद्र की पंचवटी को
हाथ जोड़कर हटता हूं,
मै चुनाव की रैली मे
और वोट डालने नही गया,
सब तो कर आए पंचकोश
मै पंखे में ही सोता हूं,

कोई धर्म नहीं, सत्संग नहीं,
कोई कर्म नहीं, अभ्यास नहीं
बिन मेरे पंखा कही नही,
मै पंखे के बिन कहीं नहीं,
मै पंखा चलाके बैठा,
मै पंखे से ही लटका हूं,
अब चलना–फिरना भूल गया,
मै पंखे तक ही अटका हूं,

मै ये पंखा चलाता हूं,
या पंखा मुझे चलाता है?

Thursday 16 September 2021

शिष्य

शिष्य और गुरु का संबध
कैसा है ये कौन जाने?

गुरु समझता शिष्य के गुण
देखकर बस चाल ही,
वह ही जाने,
कौन रावण और किसे
वह राम माने

वह ही जाने कर्ण को
देना कौन–सा अभिशाप है,
किस स्वरूप मे है ज्ञान उसका
धर्म के संस्थापनार्थ,

द्रोण जाने कौन देगा
अंगुष्ठ उसको दान मे,
कौन बनकर विश्व–धनुर्धर
प्राण लेगा संग्राम मे।

Wednesday 15 September 2021

आवाज़

तुम फिर से मेरी
कविता कोई पढ़ दो
अपनी आवाज़ मे,

कुछ ना सोची हो मैने
कुछ तरीके नए हों
कुछ किस्से अलग हो
कुछ हो तर्जुमा भी
एकदम से अलग
कुछ मकसद पे मेरी
फब्ती कोई कस दो,
अपनी जुबां से
कविता मेरी पढ़ दो।

अब ना पूछूंगा मै की
क्या कर रही हो,
किससे जुड़ी हो
किससे अलग हो,
किसकी किस्मत पे
सितारे तुम जड़ रही हो?

पर सड़क के किनारे
बैठने ही को मिल लो,
कुछ ना बोलो मगर
आंख से कुछ तो कह दो,
हां भी नहीं और ना भी नहीं
पर उंगली पकड़कर
अपना हक तो रख लो,

मेरी कोई तुम पढ़कर सुना दो।

Tuesday 14 September 2021

अन्यायी

क्या अन्याय है
जग मे जो
मैंने नहीं किया है,

मैंने नहीं लूटी है अस्मत
बोली से और बातों से
या मैने नही देखी है जाति
नाम पूछकर यारों से,

क्या मैंने नहीं चाहा
की मर जाए वो,
गलत काम जो करता है
क्या मैंने नहीं चाहा
की टांग खींच दूं
जो आगे मुझसे चलता है

बस गोली और 
बंदूक नहीं थी
हाथ मेरे, छोटा था मै
मै कैसे कह दूं
पाप नहीं वह
मन मे ही बस
करता था मै,

मै भी बैठा था
दरबार मे तब,
जब द्रौपदी सभा
मे आई थी,
मैने भी दागी थी गोली
जब "हे! राम" कोई
चिल्लाया था !

कैसे कह दूं की मैने गांधी को नही मारा?

Sunday 12 September 2021

चाय

लाल टीम और
नीली टीम मे
बड़ा भयंकर
मैच था,
आखिरी गेंद तक
रोमांच ही रोमांच था।

जीत हार का फैसला भी
बहुत मुश्किल हो सका,
दोनों टीमों के खिलाड़ी
कोई बांका ना बचा,

पर चाहने वालों मे उनके
बहस कोई हो गई,
लड़ने लगे दोनों की आखिर
जीत किसकी हो गई?

दोनो करने फैसला
गए कप्तान के पास,
और जाकर पाया की
वो कर रहे थे बात,
अगले मैच के लिए
बना रहे थे रहेे राय,
दोनो हंसते मुस्कुराते
पी रहे थे चाय।

बैल

बैल कर रहें हैं
चर्चा और समाधान
सिंग भिड़ा–भिड़ा के
करते समाधान

हर बात पर है जोर
खींचते पुरजोर,
कौन बैल है सही
कौन बैल है बड़ा
बैल की तरह ही आज
बैल करते फैसला!

Friday 10 September 2021

स्वान मंच

स्वान–मंच पर
हो रही थी
आज स्वान चर्चा,

एक बोला "भौं!"
दूसरा बोला "भौं!,भौं!"

तीसरा खड़ा था
चुप था,
कुछ विचार कर रहा था शायद
वो पहले स्वान की पूछ
पकड़ कर चबाया,
उसका ध्यान खींचने
के लिए शायद,

पहले ने पीछे पलट के
बोला "भौं! भौं–भौं?"
क्या हुआ?
"भाऊ!" कुछ नहीं!

पहले ने पूछा–"भाऊ !!!,
भौं, भौं–भौं–भौं, भौं–भौं?
भौं–भौं–भौं–भौं–भौं, 
भौं–भौं–भौं–भौं?

अब तीसरा वाला गुर्राया,
दोनों आंखों को पास लाया
और दाहिने दांतों के
मसूड़ों को ऊपर उठाकर
तेज–तेज हवा निकालने लगा
मुंह के एक तरफ से

मूंछें खड़ी और तैनात
नाक पर पसीना,
उसने बोला "भौं !"
कुछ रुककर फिर बोला–”भौं!"

कुछ छोटे पिल्ले पीछे से
एक साथ बोले "भाऊ! भाऊ! भाऊ!"

तभी एक वयस्क स्वान ने
काट लिया एक बूढ़े स्वान को
कुत्ता समझकर,
कटा हुआ मांस लटक गया।

सारे स्वान एक साथ चिल्ला उठे,
फिर समझकर दहाड़
अपनी ही आवाज़ को,
शेर से भयंकर
और संसार समझकर
अपने ही मांद को,

सब एक साथ बोल उठे–
"भौं, भौं–भौं–भौं, भौं–भौं,
भौं, भौं–भौं–भौं, भौं–भौं,
भौं, भौं–भौं–भौं, भौं–भौं,
भौं, भौं–भौं–भौं, भौं–भौं,
भौं, भौं–भौं–भौं, भौं–भौं,
भौं !
भौं !
भौं !
भौं !
भौं !
भौं !"

Monday 6 September 2021

Indian Islam

इस्लाम ओढ़ता है क्या
वक्त और समाज के 
हिसाब से हिजाब?

क्या लगाता है
महफिलों में इत्र और फुरेरी
क्या दरगाह पर चढ़ाता है
चुनर लाल रंग की?

क्या हलाल और झटका मे
अंतर कर पाता है
इस्लाम हिंदुस्तान मे?

क्या खलीफा की करके
मुखालफ़त, 
खिलाफ़त आंदोलन
करता है इस्लाम
आवाम के साथ?
अनुग्रहवादी बनकर
अंग्रेजों के खिलाफ,
‘बापू’ के साथ?
और फिर जुड़ जाता है
‘बिस्मिल’ बनकर
राम के साथ?

उर्दू मे लिखता है
हिंदुस्तानी इस्लाम
‘उपन्यास–सम्राट’ की कलम से?
या रुलाता है हंसाता है
‘दिलीप कुमार’ नाम बदल के?

क्या हिंदुस्तानी इस्लाम मस्जिदों मे
औरतों पर पहरा लगाता,
क्या वह तीन–तलाक की
बहाली पर नारा लगाता है,
संसद मे चिल्लाता है?

क्या हिंदुस्तानी इस्लाम
हिंदू भूतों को जानता है,
झाड़–फूंक करके भगाता है?
ताबीज देता है, डर भगाता है?

क्या कव्वाली मे
राम सजाता है,
रामचरित मानस
उर्दू में लिख जाता है
हनुमान चालिसा
गाता है?

और यही इस्लाम
अफगानिस्तान मे बंदूक चलाता है?

क्या इस्लाम है
जो वक्त और जगह देखकर
बदल जाता है
या इंसान है?

कौन ओढ़े है किसको?





जलियांवाला

यह देखो ये जलियांवाला
यहां चली थी गोलियां,
यही लगी थी जनमानस मे
इंकलाब की बोलियां,

यही कूद के जान गवाई
कुंवे मे भी लोगों ने,
यही बहुत सी गोली खाई
आज़ादी के सिपह–सलाहकारों ने

आज इसी पर लड़ बैठे हैं
कुछ लोग और सरकार बहुत
चला रहे हैं गोली, पत्थर
बोली के हथियार बहुत

कोई इसको याद समझकर
छोड़ दो कहता छोड़ दो,
कोई यादों को ले जाकर
बांट दो कहता बांट दो

कुछ मत देखो और
दिखाओ मत
जो देख सके तो देख ले,
कुछ मूर्ति लगाकर
चाहे इसकी अमरता
पूरी घेर लें

यही है जलियांवाला बाग
यहां उठती है आवाजें
यहीं से शुरू होता है परिवर्तन
कोई चाहे न चाहे।

स्कूल

बच्चे स्कूल जा रहे हैं,
फिर से।

साइकिल चलाकर
दौड़कर, भागकर
चलकर, खेलकर
उंगलियां पकड़कर
घंटियां बजाकर,
टाई लगाकर
सड़कों पर छाकर

बच्चे स्कूल जा रहे हैं।

कुछ बस्ते लादकर
कुछ ब्रेड मुंह में दबाकर
मास्क जेब में छिपाकर
कॉलर का मुंह चबाकर
चेक वाली shirt पहनकर
जूते polish कर
Nailpolish हटाकर
बच्चे स्कूल जा रहे हैं।

कुछ बच्चे और भी
काम पर जा रहे हैं,
चाय का पूर्वा उठाकर
रख रहे है,
फटी कमीज़ मे
उंगलियां डालकर
और बड़ा कर रहे हैं,
वो बच्चे सोच रहे हैं
की उनके मां–बाप
Corona मे चले ना जाते
तो वो भी आज स्कूल जाते

वो बच्चे सपने में
स्कूल जा रहे हैं!




Sunday 5 September 2021

लोट पोट

आखिरी बार कब
हंसे थे खुलकर?

ऐसा की जैसे
गूंज उठी था घर
बादलों की गरज
की तरह,

ऐसा की लगा हो
की कोई कह न दे पागल
और उठा ले जाए पागलघर,

ऐसा की जैसे
दिल की धड़कने गई हों बहुत बढ़
और आ गई हो सांसे हलक तक,

ऐसा की खांसी आ गई हो
आंख मे भर आया हो पानी,
और गाल और मुंह लाल
होंठ गए हो सूख
मुंह से फिसलकर
नाक से निकली हो थूंक।

ऐसा की नाक बह गई हो
जैसे सर्दी लग गई हो
और मुंह मे घुस गई हो
और ठुड्ढी पर बह गई हो
लार से मिलकर।

ऐसा की डर ही डर गया है
और याद आ गए हों
मीराबाई, सूरदास और कबीर
अंग्रेजों के सामने गांधी और
भगत और फंदा चूमते बिस्मिल और सुखदेव
और फिर रो दिया हो तुमने
अंगूठा दिखाकर
झूम गए हो जैसे 
राम के साथ वन जाकर
और हनुमान जी की पूंछ से लटककर।

ऐसा की जैसे
दिमाग की नसों मे
खून गया हो एक साथ दौड़
और एक–एक परमाणु मे
लग गई–सी हो कोई होड़
की कौन ले जाए ऑक्सीजन को
एक–एक न्यूरॉन तक
और हर एक कोलेस्ट्रॉल
गया हो गल
बीपी की बीमारी गई हो चल
सारा नशा एक साथ
हो गया हो उफन।

ऐसा की जैसे
तुम हो गए हो जमींदोज
और जमीन पर लोट कर
रहे हो एड़िया रगड़
चाहते हो कोई ले
तुम्हारा हाथ पकड़
और तुम्हे न हो सका कोई संभाल
कपड़े हो गए हो गए हों गंदे
बिना कोई फिकर
दोस्त रिश्तेदार और परिवार मे
बचा ही न हो कोई अंतर
दुश्मन ही न हो कोई
अफगानिस्तान भी लग रहा हो घर
मजहब और जात से
तुम पा गए हो खुद को बाहर।

ऐसा कब हंसे थे आखिरी बार
और किसके साथ?
और कब हंसोगे
आखिरी सांस के पहले,
कब बीतेगा तुम्हारा आजकल,
कब ऐसा हंसोगे की
लगे की आखिरी बार ?



वजह

इसलिए नाराज़ हो तुम
की उस दिन इस समय
मैंने सोचे बिना कहा था
वो जो नही था कहना।

इस वजह से,
उस बात के लिए,
उसने वो कर दिया
उसके साथ,
की उसने कहा कि
उसे ऐसा नहीं
कहना चाहिए था
उन लोगों के सामने
या इन लोगो को
इस तरह से।

उसको क्या लगेगा 
की उसका वो कैसा है
जिसको इतनी–सी भी
नही है इसकी समझ,
उस समाज की
जिसकी सबको है फिकर।

उसके उसने तो
उसके साथ
वैसा नहीं किया कभी
जो वो कहती है
वही समझा उसको
और वही उसके लिए थी
उसके जैसी की
जैसे थे नही भगवान भी।

तो इसलिए मै हूं
तुमसे नाराज़
और उससे नही
और उससे भी नही
और नही करूंगी बात
तक तक जब तक की
उसके जैसे तुम नहीं। 

Monday 30 August 2021

हिम्मत

हिम्मत आ गई है अब,
तुम्हारे बात करने से।

कुछ का कुछ 
तुम कह देती हो,
कुछ मतलब के मतलब
कह देती हो,

कुछ वाकया सुनाती हो
जग भर के,
कुछ अपनी कहती हो
लड़ने–भिड़ने के,

तुम जैसे सबसे
अड़ लेती हो,
बिना कहे भी
समझ लेती हो,
मै हँस देता हूं
लगा ठहाके,

की दूरी ढह गई है अब,
तुम्हारे हाथ धरने से।



Saturday 28 August 2021

बहाने

थोड़े करके बहाने,
कुछ इल्ज़ाम लगाकर के
मन तू खुद को बहला ले।

कुछ लोगों से हो जलन बहुत
कुछ लगे बहुत आगे की बात,
कुछ अपने पैमाने तुमको
जो लगे बहुत छोटी औकात,
तो अपनी हसरत की चादर
तू ओढ़–बिछाकर सुस्ता ले।

उसका हुआ तो उसका है
उसकी मेहनत बढ़कर है,
उसकी रातें बिन नींद गई
उसने खेल नहीं खेले,
उसकी किस्मत की चाभी
तू उसको देकर, अपना ले।

मन तू खुद को बहला ले।
तेरी बारी आएगी,
यह जान जरा तू मुस्का ले,
मन तू खुद को फुसला ले।


Friday 27 August 2021

याद

क्या तुम भी
मुझे याद करते हो,
मेरे आखिरी बात के बाद?

मेरा जिक्र किसी से करते हो,
कुछ भूली–बिसरी याद के साथ?
कल नाम तुम्हारा लेकर मै
जब आंसु छलका बैठा था,
क्या तुमको हिचकी आई थी
सोने के पहले, शाम के बाद?

क्या याद तुम्हारी ताजी है,
जब हमने movie देखी थी
क्या वो लम्हे हैं याद तुम्हे
जो हाथ पकड़ हम चले थे साथ?
क्या नशे की करते बात कभी,
हंसते हो अब भी, खुलकर?

पहचान

मै छुप जाता, तुम्हे देखकर
गर तुम सामने से ना आ जाते।

मै तुम्हे देखकर, डर जाता
और बात बनाने कुछ लगता,
मै सोच पुरानी खो जाता
जो तुम्हारे साथ मे कड़वे थे,
मै कहते–कहते चुप जाता
जो तुम बात शुरू खुद न करते।

मै भीड़ का हिस्सा ही रहता
जो नाम हमारा ना लेते,
मै दोस्त भी तुमको ना कहता
जो आकर गले ना मिल जाते,
मै नज़रे नीची कर लेता,
जो 'आप’ मुझे तुम ना कहते।


Tuesday 24 August 2021

तुम फोन पे भी चुप रहती हो !

आज फिर तुम्हारा जन्मदिन है
मैंने आज फोन भी नहीं किया!

अब तुम फोन उठाकर भी
चुप हो जाती हो,
कुछ कहती नहीं हो
पर चीर–हरण–सा कर जाती हो।
आजमाती हो धीरज को,
मेरा नाम मुझे सुनाती हो।

मैंने वो कह दिया
जो थी अनकही,
जो था कहना नहीं
पर जानते हम थे ही,
कुछ गाहे–बगाहे
बात हो जाने पर,
टालने के लिए
तुम उफनती भी थी,
अब इस तर्क को तुम 
भुनाती तो हो।

वक्त बहुत हो चुका है
की दुनिया की सोचे,
कुछ अफगानिस्तान की
कुछ सरकारी चोचे,
कुछ याद करें हम
सड़कों की मुलाकात,
कुछ तुम्हारी पढ़ाई
कुछ रस्मों–रिवाज़,
कुछ घर के झगड़े
कुछ पलटते किताब,
क्यों धूल तुम जमी है
हटाती नहीं हो?

तुम्हारी नई नौकरी पर
बहुत खुश तो होगी,
उधार की जिंदगी
अब नही जीती होगी,
घूमती–खाती होगी
और खर्च उड़ाती होगी।

बड़ी–सी कोई
Teddy bear ले लेना,
बिठा गोद मे,
अब उसी संग सोना,
अब दवा–दारु भी
थोड़ी ज्यादा पी लेना,
JNU मे नहीं
अब AIIMS मे भर्ती लेना,
बंगले खरीदना, गाड़ी चलाना
पापा की परी तुम 
किराए का घर छोड़ देना

अब अलग जिंदगी है
और से बात करना,
अलग–सी बात करना।

खुशबू वाला साबुन

आप तो खुशबू वाले
साबुन से नहाते हैं,
आप हमारा दर्द
क्या जानते हैं,

आप के बच्चे लंदन
मे पढ़ने जाते हैं,
आप इन स्कूलों मे
बस झंडे फहराते हैं,

आप के घर की सड़क 
मंदिर तक पहुंचती है,
बाजार आपके घर
दौड़ कर आते हैं,

गटर के पास से
सीसा बंद कर गुज़र जाते हैं,
आप हमसे बच कर
खुशी मनाते हैं,

आप हमारी बाजार की चीख
घर की चारदीवारी में सुनाते हैं,
हमारी चीखों को 
आदत बताते हैं,

फिर खुशबू वाले 
साबुन से नहाकर,
सब भूल जाते हैं,
खुशबूदार हो जाते हैं।

Monday 23 August 2021

प्यादे

कोई करनी से वजीर बना,
चला इधर से उधर,
दौड़कर, भागकर,
तिरछे, सीधे,
कदम बढ़ाकर
छोटे–बड़े।

कुछ रख गया पीछे
छोटे प्यादे,
धीरे–धीरे चलते,
देने को कुर्बानी
तत्पर खड़े,
वो जो बन जायेंगे
कभी वकील, दलील देकर,
और कभी मंत्री
शपथ लेकर,
कभी रटकर किताबें
जज, प्रोफेसर।

रहेंगे बंगलो मे
नवाबों के कॉलोनियों मे
यमुना के किनारे,
शाहजहां के बैठ बगल,
देखेंगे मुजरा
नृत्य घोर मगन,
यही बन जायेंगे
रईश, मिलाकर उनसे सकल।

यही प्यादे, पहले
हो जायेंगे अलग,
भीड़ का बन जाएंगे हिस्सा
करके भीड़ की नकल,
कुछ ला पाएंगे परिवर्तन,
विचार मे, बन वो भी बंदर
हमारे जैसे, पर उनसा लगकर।

यही सोच रहे थे बाबा साहेब,
बापू , बिस्मिल और भगत,
जो चले ही गए कर कुछ
और कुछ प्यादों के ऊपर छोड़कर।

Tuesday 17 August 2021

पिता

मेरे सात बेटे है,
पढ़े–लिखे, सूट–बूट पहने
काम पर जाते
मेरी तरह नहीं की 
जो सड़क पर बोझा उठाते।

नाम है, शोहरत है,
रूबाब है, और इल्म भी,
महल्ले में सानी है
और चर्चे भी है अख़बार मे।

पर आप क्यूं MGNREGA की
मशक्कत कर रहे,
जिस सड़क पर चलना नहीं
उसकी इमारत चुन रहे?

ना चलूं सड़क पर
पर पेट कैसे ये चले?
ना हो रोटी–दाल तो
क्या हम भी भूखे मरे?

बेटे नहीं देते हैं रोटी
की है नही रुपए पड़े,
उनकी शादी को तो अब
हो चले है साल बड़े,
बस जुटा भर है पा रहें
की उनके बेटे भी साहब बने!

समस्या

समस्या क्या है?
जो मन में है,
शरीर के डर के साथ है,
स्मृतियों को उधेड़ती है,
बुनती है नए संभावनाएं,
अच्छी और कुछ बुरी,
मुस्कुराती अच्छी बातों को सोचकर
घबराती काल को पास देखकर!

समस्या ‘मैं’ को झकझोरती
प्रश्न पूछती, धिक्कारती
पर नए आयाम जीवन के
देखती और दिखाती।

कोई शांत रहकर
टाल देता बात 
कल की रात पर,
कोई सुगबुगाता, कुलबुलाता
कोसता है राम पर।

पर राम ले आए हैं समस्या
राम ही का काज है,
जो कर रहे थे वो स्वयं ही
हमसे कराते आज है,
की सोच ले हम वो 
की जो सोचते थे 
है ही नहीं संसार मे!

हम देख ले 
और जान लें
की भेद क्या है
मान और अभिमान मे,
हम बैठ कर हैं पढ़ रहे
कोई लुट रहा अफ़गान मे!


Monday 16 August 2021

तर्क

तर्क मे रखा है कोई
तथ्य ढूंढकर,
तथ्य मे रहा कोई कर
तर्क की फिकर।

तथ्य तर्क के लिए
जमा किया है,
जीव तर्क को लिए
छुपा हुआ है।

तर्क जो करता जीव
तथ्य के लिए,
हो रहा है जीव गोचर
तर्क के लिए।

शौहार्द्य के संवाद मे
शरीर आगे हो गया,
राम पीछे छूट गया
मिट्टी लड़ता रह गया।

मिट्टी–मिट्टी, अलग–अलग
राम नहीं ध्यान मे,
राम आए सामने तो
तो जुट गया संग्राम मे।

जो लिया था राम से
वह पहचान नहीं पा सका,
राम से ही तर्क किया,
राम नही पा सका।

मूर्ख

बिरबल चले चार मूर्ख ढूंढने,
बादशाह की ख्वाइश पूरी करने।

एक मिला ढूंढ रहा
कुछ तो खोया हुआ,
रोशनी मे ढूंढ रहा
घर में गोया हुआ।

एक मिल गया
सर पर बोझ रखे भारी,
उपर से कर रहा था
एक गधे की सवारी।

एक, लिख रहा हूं मै
जो की लिखा जा चुका है,
पढ़ रहा हूं लिख के
जो की पढ़ा जा चुका है।

एक पढ़ रहा है मेरी
छोटी–सी लिखाई,
कंकड़ों मे ढूंढता है
राम की खुदाई।

Wednesday 11 August 2021

Adventure

कुछ बोल दिया जो सोचा नहीं,
अब बोल के सोच रहा कब से,
बस बैठे–बैठे, बैठा था
अब आराम नहीं मुझमें।

कुछ जोड़–तोड़ के जोड़ रहा,
कुछ जोड़, तोड़ के बैठा हूं,
कुछ तोड़ के मुद्दे ढूंढ रहा,
कुछ जोड़ के नाम लिखूं कैसे?

जो यहां पड़ा था वहां रखा,
जो वहा जमा था, यहां रखा
जो जमा हुआ है पहले से
उसके बाहर निकलूं कैसे?

सदगुरु की सब बात सही
की खोज खुचर की करता मन,
Adventure करने को उसको
कुछ चाहिए करना इधर–उधर,

राम से भी संग्राम करे
रावण की तारीफें भी,
मन ही तो बड़ा adventurous है,
अपने से खुश रह ले भी।


नाराज़

क्या दिन ऐसा आया है कि,
तुमसे भी नाराज़ रहूं?

मै मन में रक्खू बातों को
अब कहने मे भी लाज करूं?
मै बोलूं नहीं खुलकर कुछ भी
कुछ कहने में संकोच करूं?

मै शब्द के भाव को 
न मे गूथकर,
पहले उसके अर्थ बुनूं?
फिर उनको तुमसे कहने मे
कुछ वक्त रुकूं, 
कुछ–कुछ ही कहूं?

क्या मेरे शब्द भी अब तुमको
बरछी–कटार से लगते हैं?
क्या मेरे कहने के मतलब
कुछ छुपे हुए से दिखते हैं?
क्या खुला हुआ–सा लगने को
मै गुप्त–से माने साथ रखूं?

मै अंतरमन के भावों को
किसके सम्मुख निष्पाप रखूं?
कोई और कहां है तुम जैसा की
जिससे दो पल बात करूं?

राम–राम है सत्य–सत्य
और सत्य ही साथ तुम्हारे है,
जो सत्य–असत्य में उलझा हूं,
मै सत्य की कौन सी राह चूनूँ?

Monday 9 August 2021

चक्रव्यूह

कभी तलवार, कभी तीर,
कभी भाला, कभी जंजीर,
कभी हाथ, कभी पांव,
कभी मुष्ठ, कभी भाव,
रुद्र–रूप, गदा–संग,
भाज कभी लाठियां,
यदा–कदा शूरवीरों,
की पकड़ के बाहियां,
कर रहा अभिमन्यु
व्यूह–भेदन की क्रिया।

मुखिया

घर का मुखिया कौन है?

वह शराब मे है डूबकर
घर भी डूबाकर, फूंककर,
कर रहा है त्राहिमाम,
काम दो कुछ काम।

चंद रुपए जो कमाए थे
बेटी ने अपनी जान धर,
ले गया वो लूटा आया
ठेके के दीवार पर।

गुसलखाने की दीवारें
छत बिना बेज़ार हैं,
नहाने मे भी है नुमाईश
देखता संसार भर।

अब जोड़ कर कुछ पाइयां
मां–बेटियां छत ढक रहीं,
पीने की खातिर भी रखें है
कुछ दाम भी भर रहीं।

पर समझ की संसार मे
जो बेच बैठा है घर–द्वार,
वो घर का मुखिया है बना
हुक्म करता है बैठा।

अब घर का मुखिया कौन है ?

नुमाइश


तुम क्या पहनती हो
ये चर्चे है बहुत अखबार मे,
तुम खेलती हो क्यूं ढकी–सी
अब खेल के बाज़ार मे।

तुम घरों की चौखटों को
लांघ आई थी निकल,
तब भी बनकर थी खिलौना
देह के व्यापार मे।

तुम फखत बस जिस्म थी 
बोली लगाने के लिए,
वो काट कपड़े, करते नुमाइश
तलब के आसार मे।

तुमको रक्खा सामने जब
बाजार में बिकने लगी,
तुम क्यों मद मे आ गई
की हो भी तुम संसार मे।

‘शीला की जवानी’ थी तुम
और थी सूरत और चाल मे,
प्रेम–चर्चे तब ही हुए,
जब लूट गई बाज़ार मे।

कुछ तो ढक कर रख रहे हैं
महफूज़ पर्दों–हिजाब मे,
कुछ दिलाते अधिकार तुमको
महज़ स्तन ढकते लिहाफ़ मे।

तुम महज़ हो द्रौपदी
बस बट रही संसार मे,
और एक वजह महज हो
महाभारत के यलगार मे।

है राम की अभिलाष जग मे
रावण की राह मे,
इंद्र को जो दे चुनौती
अहिल्या के मान मे।


नवरात्र

भावनाओं की कलश  हँसी की श्रोत, अहम को घोल लेती  तुम शीतल जल, तुम रंगहीन निष्पाप  मेरी घुला विचार, मेरे सपनों के चित्रपट  तुमसे बनते नीलकंठ, ...