तुम क्या पहनती हो
ये चर्चे है बहुत अखबार मे,
तुम खेलती हो क्यूं ढकी–सी
अब खेल के बाज़ार मे।
तुम घरों की चौखटों को
लांघ आई थी निकल,
तब भी बनकर थी खिलौना
देह के व्यापार मे।
तुम फखत बस जिस्म थी
बोली लगाने के लिए,
वो काट कपड़े, करते नुमाइश
तलब के आसार मे।
तुमको रक्खा सामने जब
बाजार में बिकने लगी,
तुम क्यों मद मे आ गई
की हो भी तुम संसार मे।
‘शीला की जवानी’ थी तुम
और थी सूरत और चाल मे,
प्रेम–चर्चे तब ही हुए,
जब लूट गई बाज़ार मे।
कुछ तो ढक कर रख रहे हैं
महफूज़ पर्दों–हिजाब मे,
कुछ दिलाते अधिकार तुमको
महज़ स्तन ढकते लिहाफ़ मे।
तुम महज़ हो द्रौपदी
बस बट रही संसार मे,
और एक वजह महज हो
महाभारत के यलगार मे।
है राम की अभिलाष जग मे
रावण की राह मे,
इंद्र को जो दे चुनौती
अहिल्या के मान मे।
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