तुमसे भी नाराज़ रहूं?
मै मन में रक्खू बातों को
अब कहने मे भी लाज करूं?
मै बोलूं नहीं खुलकर कुछ भी
कुछ कहने में संकोच करूं?
मै शब्द के भाव को
मन मे गूथकर,
पहले उसके अर्थ बुनूं?
फिर उनको तुमसे कहने मे
कुछ वक्त रुकूं,
कुछ–कुछ ही कहूं?
क्या मेरे शब्द भी अब तुमको
बरछी–कटार से लगते हैं?
क्या मेरे कहने के मतलब
कुछ छुपे हुए से दिखते हैं?
क्या खुला हुआ–सा लगने को
मै गुप्त–से माने साथ रखूं?
मै अंतरमन के भावों को
किसके सम्मुख निष्पाप रखूं?
कोई और कहां है तुम जैसा की
जिससे दो पल बात करूं?
राम–राम है सत्य–सत्य
और सत्य ही साथ तुम्हारे है,
जो सत्य–असत्य में उलझा हूं,
मै सत्य की कौन सी राह चूनूँ?
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