Monday 28 February 2022

सरहद


सरहदों को पार कर
रहे हैं बाशिंदे,
जब आ रहें हैं
पार कर, घर मे
घुस रहें हैं, सरहदें
वो ईश्वर के 
personal नुमाइंदे, 
पुतिन बन कर
करने को इंसाफ,
मल को करने साफ,
बदलने को इतिहास
आज मिटा रहें हैं 
फिर से सरहदें,

तोप और बंदूक
से कर रहे नेश्तोनाबूत
घर मकान शहर
और हुए जो बेघर
भटक रहे दर–बदर
इधर–उधर
शायद  पार है रूमानियत 
वाला रोमानिया
या पार करते भूमध्य सागर,

पर क्या बची है 
कोई सरहद,
जो है बंदूक वालों से
महफूज़,
जहां पर हिज्र कर
बचा चलेंगे
मोहम्मद छोड़ कर
काफिर का घर,
मक्का बना लेंगे कोई
या बसा लेंगे अमृतसर,
जहां न औरंगज़ेब
नही जहांगीर का डर,

है कहां शिवाजी की
चमकती शमशीर
जिसमे आकर सिमट जाए
सरहदों का विस्तार
और औरंगाबाद कोई
बन सके पुतिन की कब्र,
हैं कोई सुभाष जो
कर दे एक हुंकार
गांधी का ले आशिर्वाद,

आज कौन है
जो सो सकेगा
बिछाकर चादर
नोआखली मे
मुसलमान के घर,
रोक कर आक्रोश
लोगों का,
भूख में तपकर
करेगा
हृदय परिवर्तन
साध्य को 
दिखला सकेगा
सनातन साधन?

कौन है गोवर्धन
जो आगे बैठकर
बिन सुरदर्शन के
बतला सकेगा
मार्ग सुमंगल
कौन है ऐसा नरेंद्र, 
कौन है राम–सा नरेंद्र?

दानव


मेरा दानव
ओढ़ कर बैठा था,
चादर सफेद–सी
खद्दर की,

मेरा दानव
छुप कर बैठा था,
यादें समेत कर
बत्तर–सी,

दानव रात मे
उठता है,
दानव घर मे
टहलता है,

दानव पैखाने मे
सोच रहा,
दानव नहाने मे
नाच रहा,

दानव की मर्यादा
को बाहर लेकर आई हो,
दानव की चुभति भाषा को
तुम कविता मे दिखलाई हो,

दानव को राम दिखाने को
सूर्पनखा बहन तुम आई हो,
मंथरा चाची तुम आई हो,
तुम कैकेई को भरमाई हो,

राम की आज परीक्षा को
दसरथ को भी मजबूर किया
तुम रावण को भड़काई हो !

राम–नाम का सत्य आज,
अग्नि–परीक्षा से सुलझाई हो।


Emotional abuse

ना सिर है
ना पैर है,
ना आदि
ना ही अंत है,

कब बोला 
कब छोड़ दिया,
कब बातों का
रुख मोड़ दिया,

कब चुप्पी थी
कब तिरस्कार,
कब मुस्काया
कब नमस्कार,

कब क्या सोचा
क्या बोल दिया,
कब जलन हुई
मुख खोल दिया,

सुर्पनखा बहन
कब का कब
किस बात से 
किसको जोड़ दिया,

रावण का तर्पण
करने को
राम को उसने 
छोड़ दिया !

Saturday 26 February 2022

Network

एक दुनिया हो 
बिना नेटवर्क वाली
जहां लोग मिलते
हो बाहें फैलाए,

जहां आवाज 
फोन की कम
और पास की 
ज्यादा हो,

जहां बच्चे
खेलते हों कंचे 
और लड़ते हों खुलके,

जहां पानी 
सड़कों पे नहीं
खेतों में बहते हों,

जहां स्कूटी पर नहीं
लोग पैदल चलते हों,
कपड़े मशीनों में धुलकर
पेड़ों पर सूखते हों,

जहां लोग 
गंगा के किनारे सोते हों
सुबह धूप में जागते हों,

मुर्गे और कुत्ते 
भैंसों से लड़ते हों
बिल्लियाँ रोटी चुराती हों
और मोर घूमने आते हों

जहां कोयल का 
रिंगटोन हो
वर्षा को बुलाते,
जहां वक्त रुका हो
लोग हों बोलते बतियाते,

नेटवर्क इंसानों का हो
प्रकृति के साथ
नेटवर्क सबका 
अच्छा हो
खुद के साथ !



करेले की मिठाई

भाई –साहब ने बना दी
करेले की मिठाई,

कसैला उसका रस
बड़े चमचे से हटाई,
पैसों की चांदी थोड़ी
बदन पर सजाई,

काले रंग पर चढ़ा दी
गुलाबी की परत,
ओड़ीशा के सिरके डूबा दी
गरम बड़ी गरम,

जलन को उसकी
महंगे गहने से ठंडा किया,
Ego को दबा के उसके
Logic मे नहला दिया,

उसके बाद छुपा के सबसे
बाज़ार मे चढ़ा दिया,
भाई साहब ने दो महीने मे
करेले को मीठा किया ☺️☺️

अशांत

मार कर, कर दूं आज
शांत मै अशांत को,
अशांत है, प्रशांत क्या
या शांत ही अकांत है?

झील है ठहरा हुआ
या की जल प्रपात है,
प्रताप है फैला हुआ
या घुप्प अंधकार पसरा हुआ?

सहज नहीं, सहज लगे
सहज का ज्यों अकाल है !
समाज की दिशा मुझे
समाज से जुदा लगे !

अशांत ही प्रशांत है,
प्रशांत भी अशांत है!

🏫 स्कूल


युगांडा मे स्कूल खुल गए
खुल गई किताबों की दुनिया
खुल गया lockdown
और पढ़ने के तरीके,

फोन की छोटी खिड़कियाँ
नहीं थी जिन घरों मे,
नही थे जिन मकानों की
छतों पर एफिल टॉवर,

जिन घरों की देवियों ने
हाथ कलम धरा नहीं,
जिन चौखटों को लाँघकर
पैर थे बढ़े नहीं,

जिन आँखों के डरों को तब
फैला रहीं थी खामियां,
उन दिवारों की परत के
खुल गई हैं बल्लियाँ !

Blood–Pressure

कब से मै वो बोलने लगा
जो बोलना नही था पसंद
वो जो था नहीं, मै बनने लगा,
लगा मैं रहा कब से हंसने लगा

कब हुई तर्क की 
झुलस बड़ी आग–सी
कब लगी लपट बड़ी
बुझी नहीं जो आँख की,

कब सोचने लगा मै खुद की
खुद के दायरों मे बंद
कब मै शब्द चुन लिया
जो था नहीं मेरे–से चंद,

कब गिरह को खोलने 
लगा मै खुद की चाभियाँ
कब उधेड़ने लगा
ढकी हुई सी नालियां,

बालियों को कह दिया मै
झुनझुने हैं कान के,
मुझको अखरने लगी
कब से ये नथुनियाँ,

कब से मुस्कुराहटें
मुझको व्यर्थ हो गई
कब तुम्हारी सादगी
मुझको बेफ़िक्री लगी,

कब मै बढ़ाने लगा
तुम्हारा भी और मेरा भी
Blood– Pressure?

Thursday 17 February 2022

किनारा

दरिया यहाँ तक 
आते–आते सूख जाता है,
वो रहता है नहीं
मौजों का गुलिस्तां
हाथों का बंधा
रेती का बवंडर
छूट जाता है,

सुखी हुई कुछ धारियों–का
पपड़ी–सा रेला है,
शाम–सा लगता हमारा
यह सवेरा है,

जहाँ तक जा रही नजरें
वहाँ पर धुंधला–सा
तुम्हारा और मेरा
रस्ता पुराना
खुरदुरा–सा है,

यहां तक का सफर
ऐ हमसफर
जो बिन तुम्हारे था,
कुछ तन्हा जरा–सा है
बहुत ही अनबना–सा है,

मै कहता हूं
वफ़ा की बात
बहुत ही सादगी से अब,
सुना  तुमने नहीं मुझको
तो किस्सा अटपटा–सा है।

Tuesday 15 February 2022

तोहमत

हम तुमपर
लगाकर तोहमत
कुछ नए ही सफर 
मे चले जा रहे हैं,

तुम हमपर लगाकर
तोहमत कोई
मुझसे अलग–सी
हुए जा रही हो,

यही है तरीका 
की आगे बढ़े हम
तुम मुझको
हम तुमको धूमिल
गाहे–बगाहे 
किए जा रहे हैं।

मोतियाँ

बिखरे हुए मोतियों की
माला संभालता हूं
मै टूटते हुए समय की
धार को सवारता हूं,

मै उठा के धागा 
और उठा के मोतियाँ
हाथ से ही बार–बार
बार–बार डालता हूं,

संवर रहा समाज है
या गा रहीं हैं तितलियां
मै फूल की जड़ों मे खाद
उठा–उठा के डालता हूं।

Toxic–Ex

बातें करूं जो 
तुमसे मै छुपकर
तो बातें पुरानी वो 
याद आएंगी,

बातें करूं तुमसे
बदलकर तो भी
उसी मे मै
ढल जाऊंगी,

बातें रूमानी–सी
बातें रूहानी–सी
अब इस घड़ी मे
ज़हर बन गई हैं,

कस्मों की, वादों की
बातें जानी पहचानी–सी
जीवन की मेरी
खलिश बन गई हैं,

गुर्बत मे चुनी 
जो थी राहें सुकून की
वही अब तो मेरी
 तपिश बन गई हैं,

बंधन है मेरे
ठहरे कदम की
हिजाब ही मेरी
सकल बन गई है।


Police

सूर्पनखा ने राम को
रावण से बचा लिया,
उसने अपने प्रेम
ध्यान से छुपा लिया,
और भड़कते ज्वाल को
माता पर घुमा दिया,

बता दिया की है एक परी
दिव्य रूप–सी
है पंचवटी के महल मे
किरण ज्योति–मूर्त सी,

है नहीं उसके समान रूप
तीनों लोक मे
रावण के ही वो योग्य है
सर्वशक्तिमान योग मे,

यही कहकर सूर्पनखा ने
बात को घुमा दिया
अपनी काली खोट को
लखन–राम का दिखा दिया
सुर्पनखा ने राम को
रावण से बचा लिया,
सूर्पनखा ने राम को
पुलिस से बचा लिया।

चिट्ठी

तब तुम मुझे 
एक चिट्ठी लिखोगी,
मेरी कविताएं
जब फिर से पढ़ोगी,

उससे छुपोगी
उनसे छुपोगी
मेरा पता तुम
किसीसे पूछ लोगी,

मां की याद 
जब बहुत ही आएगी
आंसु पोछोगी खुद ही
और मुस्कुराओगी
फिर क्या सोचकर
तुम आगे बढ़ोगी?

तुम नही रोक पाओगी
अपनी कलम को,
महलों के मीनारों की
जद्दो–जेहद को,
गंगा किनारे की
रेती उठाने,
तुम मीरा–सी बनकर
पैदल चलोगी,

तुम लिखोगी वो मंज़र
रेतों के किलों की,
तुम बातों की अपने 
फसाने लिखोगी,
तुम खुशी की महज़ एक
झलक याद कर
दामन को अपने
भिगोया करोगी।


Sunday 13 February 2022

परी

कभी किया है तुमने क्या
परियों का इंतजार
रात–रात जागकर 
कुछ क्षण का ही दीदार

खाई कभी है गालियां
क्या आवाज़ सुनने को,
क्या की कभी है स्वप्न से
यलगार, करने को,

क्या हो रुके सांसों को थामे
अप्सराओं के लिए
क्या कभी प्रिय को भुलाकर
काम से लोलूप हुए,

क्या कभी चाही है माया
सत्य की चौखट खड़े,
क्या फिसल–सी भी गई है
वासना तुम्हारे लिए,

क्या चुप रहे हो जानने को
चिल्ला के वो क्या–क्या कहेगी,
क्या कभी उलझन पड़े हो
की आज वो किससे जले,

क्या कभी सीखा है कुछ भी
आम्रपाली से भला?
दरवाजे पर क्या लूट गए हो
भूलकर सारी कला?

क्या ही लेकर आए थे
और क्या लेकर जाओगे
क्या कभी आजमा लिया है
गीता की यह साधना,

माया की नगरी के दरवाजे
कभी क्या घूमे हो,
माया की उंगली पकड़कर
क्या समर से जूझे हो?

अच्छी बातें

अच्छी तुम्हारी बातें सारी
याद आती है,

जान तुम चली गई हो
दूर तब मुस्कुराती हैं,
तुम्हारी याद ही लबों
पे मेरे तैर जाती हैं,

बात उन दिनों की जो
चिल्ला के करती थी तुम,
अब गुस्सा नही मुस्कान
मेरे मन में लाती हैं,

तुम्हारी हरकतों पे 
जो कसे,
ताने थे मैंने तब
अब बन के वो उलाहना
मन को सताते हैं,

खीच लेता हाथ या
हो ही जाता चुप,
गुर्रा ही देता गैर
जब तुमको सताते हैं,

पर गैर बनकर अब
तुम्हारा बन रहा हूं जब
राम फिर क्यूं मुस्कुरा के
मन में आते है,
राम की महिमा की माया
क्यूं जताते हैं ?


नाक–कान

नाक–कान काटना क्यूं
चाहता है लखन
सूर्पनखा बहन का आज
क्यूं लखन, क्यूं लखन,

मान करता राम का
पर राम–सा नहीं है मन
सूर्पनखा की करे अवहेलना
लखन का तपन,

सूर्पनखा का था क्यूं
सीता माता से जलन
नाम भी नही उसे था
उनका सुनना भी पसंद,

झपट पड़ी वो बिल्ली–सी
बनी बहन
कचोटना वो चाहती थी
दिव्य–प्रीति और किरण,

मन की सुन विवेचना
काम मे व्यथित बदन
उछल–उछल के चल पड़ी
माता की कर उलाहना,

राम की तनिक हटी
मुस्कान का अनावरण
दंड देने खुखरी
बढ़ चले क्षणिक लखन,

नाक–कान काट कर
कर दिया बहुत जघन्य
पर हमेशा राम–सा
पड़े जो मन को सोचना
तो व्यर्थ है गांधी का बढ़कर
नाक–कान काटना
मन के भव में तैरकर
रावण सरीखा नोचना !



Monday 7 February 2022

मोहल्ला

मेरे घर से दूर
एक मोहल्ला है मेरे जैसा
वहां भी होलिका
जलती है और
सजती है
महीने भर पहले,
वहां भी हैं मकान 
पास–पास और
छतों से जुड़े हुए,
वहां भी बच्चे मिलकर
अपनी होलियां जुटाते हैं
वहां भी घरौंदों के दिए
भोर मे उठाते हैं,

वहां भी बड़ों की दीवारें
बच्चे लांघकर चले जाते हैं,
वहां भी इरादों और चंचलता
मुंडेरे रोक नहीं पाते हैं,
वहां भी शाम को वो मिलने
बिन कहे ही आते हैं,
वहां भी नाम के बिना
वो कई खेल खेलने जाते हैं
वहां भी बच्चे रोते हुए घर जाते हैं
वहां भी पुचकारकर
मां के आंचल में सो जाते हैं,

वहां भी वही ललक है
किताबों की सिमटी जिल्द से
उखड़ी हुई हसरतों की,
वहां भी वही उफन है
गर्मी की चिलचिलाती 
धूप में बिगड़ने की,

मेरे घर से दूर
एक मोहल्ला है,
बच्चों का जो 
अब तक बड़ा नहीं हुआ,
मेरे घर से दूर
एक घर भी है मेरी तरह,
मेरे बचपन का घर
जो अब तक है बचा हुआ !

धूप

धूप मेरे साथ
मेरे साए की तरह
मेरी कंधों पर चढ़ी हुई
मेरे रहनुमा की तरह,

मखमली छुवन–सी है
नर्म हाथ यार का
मेरे सामने खिली हुई है
मुस्कान के खुमार की,

धूप तब रुकि नहीं
जब बैठकर मै सोचता
धूप तब बढ़ी नहीं 
जब चल रहा था मै यदा–कदा,

मेरे हर होशोहवास मे
धूप मेरे साथ थी
मै करता और रुका मगर
धूप सदाबहार थी,

धूप मुझे सेकने को बैठना
ही क्यों पड़ा
जब मेरे मुकाम पर
धूप भी था संग बढ़ा !

Thursday 3 February 2022

बंधन

कुछ ज़रूरत थी मुझे
वो पा लिया कोशिश किया
और पाने के लिए मै
और भी भिड़ता रहा,
और बंधन में स्वयं ही
आप मै गिरता रहा।

सेतु

जो है वह भान नहीं
जो होगा उसका ज्ञान नहीं
है और होगा के मध्य मै
और मुझमे है संताप नहीं,

यह सरल नहीं है
होना और नहीं होना
करना और नहीं करना
पाना और नहीं पाना

उसकी चादर की 
रंगत देख,
अपना रंग छुपा लेना
यह सरल नहीं है
उसकी बातों का मैल भुला
अपनी वाणी मीठी रखना

बस राम नाम के चप्पू से
अपनों से द्वंद मिटा लेना
जो है और जो होगा
उसके अंतर सुलझा लेना
सरल यही है राम नाम
तुम राम नाम दोहरा लेना।



कबूतर

ये कबूतर 
मिट्टी खा रहा है,
या खा रहा है
कंकड़,
चल–चल कर
उठा रहा है
यह कबूतर
कीड़ा कोई 
या मिट्टी का कण।

यह कबूतर 
ढूंढ कैसे पा रहा है
कण–कण का कंचन,
यह कबूतर तृप्त है
फांकता है रज–कण,
मै ढूंढता हूं ताज कोई
वह पा रहा है अंतर।

नवरात्र

भावनाओं की कलश  हँसी की श्रोत, अहम को घोल लेती  तुम शीतल जल, तुम रंगहीन निष्पाप  मेरी घुला विचार, मेरे सपनों के चित्रपट  तुमसे बनते नीलकंठ, ...