सरहदों को पार कर
रहे हैं बाशिंदे,
जब आ रहें हैं
पार कर, घर मे
घुस रहें हैं, सरहदें
वो ईश्वर के
personal नुमाइंदे,
पुतिन बन कर
करने को इंसाफ,
मल को करने साफ,
बदलने को इतिहास
आज मिटा रहें हैं
फिर से सरहदें,
तोप और बंदूक
से कर रहे नेश्तोनाबूत
घर मकान शहर
और हुए जो बेघर
भटक रहे दर–बदर
इधर–उधर
शायद पार है रूमानियत
वाला रोमानिया
या पार करते भूमध्य सागर,
पर क्या बची है
कोई सरहद,
जो है बंदूक वालों से
महफूज़,
जहां पर हिज्र कर
बचा चलेंगे
मोहम्मद छोड़ कर
काफिर का घर,
मक्का बना लेंगे कोई
या बसा लेंगे अमृतसर,
जहां न औरंगज़ेब
नही जहांगीर का डर,
है कहां शिवाजी की
चमकती शमशीर
जिसमे आकर सिमट जाए
सरहदों का विस्तार
और औरंगाबाद कोई
बन सके पुतिन की कब्र,
हैं कोई सुभाष जो
कर दे एक हुंकार
गांधी का ले आशिर्वाद,
आज कौन है
जो सो सकेगा
बिछाकर चादर
नोआखली मे
मुसलमान के घर,
रोक कर आक्रोश
लोगों का,
भूख में तपकर
करेगा
हृदय परिवर्तन
साध्य को
दिखला सकेगा
सनातन साधन?
कौन है गोवर्धन
जो आगे बैठकर
बिन सुरदर्शन के
बतला सकेगा
मार्ग सुमंगल
कौन है ऐसा नरेंद्र,
कौन है राम–सा नरेंद्र?