परियों का इंतजार
रात–रात जागकर
कुछ क्षण का ही दीदार
खाई कभी है गालियां
क्या आवाज़ सुनने को,
क्या की कभी है स्वप्न से
यलगार, करने को,
क्या हो रुके सांसों को थामे
अप्सराओं के लिए
क्या कभी प्रिय को भुलाकर
काम से लोलूप हुए,
क्या कभी चाही है माया
सत्य की चौखट खड़े,
क्या फिसल–सी भी गई है
वासना तुम्हारे लिए,
क्या चुप रहे हो जानने को
चिल्ला के वो क्या–क्या कहेगी,
क्या कभी उलझन पड़े हो
की आज वो किससे जले,
क्या कभी सीखा है कुछ भी
आम्रपाली से भला?
दरवाजे पर क्या लूट गए हो
भूलकर सारी कला?
क्या ही लेकर आए थे
और क्या लेकर जाओगे
क्या कभी आजमा लिया है
गीता की यह साधना,
माया की नगरी के दरवाजे
कभी क्या घूमे हो,
माया की उंगली पकड़कर
क्या समर से जूझे हो?
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