एक मोहल्ला है मेरे जैसा
वहां भी होलिका
जलती है और
सजती है
महीने भर पहले,
वहां भी हैं मकान
पास–पास और
छतों से जुड़े हुए,
वहां भी बच्चे मिलकर
अपनी होलियां जुटाते हैं
वहां भी घरौंदों के दिए
भोर मे उठाते हैं,
वहां भी बड़ों की दीवारें
बच्चे लांघकर चले जाते हैं,
वहां भी इरादों और चंचलता
मुंडेरे रोक नहीं पाते हैं,
वहां भी शाम को वो मिलने
बिन कहे ही आते हैं,
वहां भी नाम के बिना
वो कई खेल खेलने जाते हैं
वहां भी बच्चे रोते हुए घर जाते हैं
वहां भी पुचकारकर
मां के आंचल में सो जाते हैं,
वहां भी वही ललक है
किताबों की सिमटी जिल्द से
उखड़ी हुई हसरतों की,
वहां भी वही उफन है
गर्मी की चिलचिलाती
धूप में बिगड़ने की,
मेरे घर से दूर
एक मोहल्ला है,
बच्चों का जो
अब तक बड़ा नहीं हुआ,
मेरे घर से दूर
एक घर भी है मेरी तरह,
मेरे बचपन का घर
जो अब तक है बचा हुआ !
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