चाहता है लखन
सूर्पनखा बहन का आज
क्यूं लखन, क्यूं लखन,
मान करता राम का
पर राम–सा नहीं है मन
सूर्पनखा की करे अवहेलना
लखन का तपन,
सूर्पनखा का था क्यूं
सीता माता से जलन
नाम भी नही उसे था
उनका सुनना भी पसंद,
झपट पड़ी वो बिल्ली–सी
बनी बहन
कचोटना वो चाहती थी
दिव्य–प्रीति और किरण,
मन की सुन विवेचना
काम मे व्यथित बदन
उछल–उछल के चल पड़ी
माता की कर उलाहना,
राम की तनिक हटी
मुस्कान का अनावरण
दंड देने खुखरी
बढ़ चले क्षणिक लखन,
नाक–कान काट कर
कर दिया बहुत जघन्य
पर हमेशा राम–सा
पड़े जो मन को सोचना
तो व्यर्थ है गांधी का बढ़कर
नाक–कान काटना
मन के भव में तैरकर
रावण सरीखा नोचना !
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