जो बोलना नही था पसंद
वो जो था नहीं, मै बनने लगा,
लगा मैं रहा कब से हंसने लगा
कब हुई तर्क की
झुलस बड़ी आग–सी
कब लगी लपट बड़ी
बुझी नहीं जो आँख की,
कब सोचने लगा मै खुद की
खुद के दायरों मे बंद
कब मै शब्द चुन लिया
जो था नहीं मेरे–से चंद,
कब गिरह को खोलने
लगा मै खुद की चाभियाँ
कब उधेड़ने लगा
ढकी हुई सी नालियां,
बालियों को कह दिया मै
झुनझुने हैं कान के,
मुझको अखरने लगी
कब से ये नथुनियाँ,
कब से मुस्कुराहटें
मुझको व्यर्थ हो गई
कब तुम्हारी सादगी
मुझको बेफ़िक्री लगी,
कब मै बढ़ाने लगा
तुम्हारा भी और मेरा भी
Blood– Pressure?
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