Monday 22 November 2021

जल्लीकट्टू


 लेता पीठ का कूबड़
मै परस्पर इधर और उधर
दोनो मे है जंग
एक नई हुड़दग
आगे और पीछे
छूकर सींग के कुछ अंग
पाना चाहे जीवन रंग
और वो व्याकुल
बदलता हर घड़ी के संग,

जो कर चुका है
भीड़ मे बैठा,
मजे लेता
बहुत हंसता,
जैसे है लड़कपन
की ये बात–जल्लीकट्टू !

addiction

करते–करते, बार–बार
हो गया हूं आदि
मै बार–बार कर रहा
मै कर रहा बर्बादी,

वो खा रहा मुझको
जो खाकर, खा रहा हूं मै,
मै डर भी जाता हूं
पर परस्पर, कर रहा हूं मै,

जो जानता करते हुए
क्या कर रहा हूं मै,
मै कुछ न करता
मान जाता कर रहा है मै,

पर मै को करता जानकर
जो रुक गया था मै,
दूर खुद से हो गया था
देखकर संशय,

अब वक्त जब बचने लगा
तब मन लगा है व्यर्थ मे,
जो चाहता था न ही करना
उसके ही प्रारब्ध्य मे,

जो कर रहा था
वह ही जड़ था,
कर्म के हर मूल मे,
तो छोड़ आखिर
क्यूं चला मै
कर्म के जूनून मे?

एक आदि था मै जो
वही आदि रहा अज्ञान का!
राम की करनी बढ़ाने
राम से अंजान था!

consecrated

नग्न हो तुम 
नग्न हो तुम
राम के दरबार में,

तुम थे सुसज्जित
मोह से,
अंकुश बहुत से
साथ लाए थे,
आडंबरो की भीड़ मे
खुद को भुलाए थे

अब तन के 
पट को त्यागकर, 
हो गए निर्वस्त्र
काम–क्रोध–लोभ से
जो पनप रहे थे,
पहचान मे छुपकर
चिपके हुए थे आवरण से
‘मै’ बड़ा बनकर,

अब मग्न हो तुम
मग्न हो तुम
राम के दरबार मे,
जब नग्न हो तुम
नग्न हो तुम
राम के सत्कार मे!

आईना

जब आईने को देखता हूं
देखता हूं कुछ अधूरा–सा,
कुछ रह गया है नाक पर
कुछ गाल पर भी रह गया,

कुछ मन मे है, कुछ मन मे था
कुछ आ गया, कुछ आया नही
कुछ कर दिया, कुछ किया नही
कुछ पा लिया, कुछ पाया नही

हर पल में बसा है मेरे
कुछ दास्तान की चाह
जो लिखा हुआ था पढ़ा नही
कुछ लिख लेने की चाह

आईने मे ढूंढता हूं, मै अधुरपन,
अधूरे ज्ञान की मै पूर्णिमा मे
ढूंढता चंदन,
चंदन की महक मे, बाँवरा हूं,
मै ढूंढता मकसद का जीवन
भूल कर जीवन,

मृग बना मन,
स्वर्ण का तन
पांव मे थिरकन,
आईने के सामने
है राम को छलने
पर राम जैसा आईना
पहचानता मुझको,
बाण–सा है भेद देता
मारीच सरीखा मन,

आईने मे ढूंढता हूं, 
जो मै होना चाहता हूं
पर आईना तो है बना
दिखला रहा सदियों–से
मुझको और सबको
जो था मै नहीं, 
जो हूं मै !




Saturday 20 November 2021

इश्क

पागलों की तरह
तुमसे इश्क करने वाला
कल न आया कभी 
ढूंढते तुमको यूं
तो किसकी इबादत की
तौहीन करके
तुम खुद को वफ़ा की
संगेमरमर कहोगी?

किसकी शिकायत करोगी
खुद से लड़कर
किसकी नज़र मे
खुद को ऊंचा कहोगी,
भूल जाओगी किसके
मखमली बातों को
किसकी तंगदिली को
नुमाया करोगी?

किसको कहोगी
की फोन न करे
किसको फेसबुक से
हटाया करोगी
किसकी तुम खुशी को
उसी की समझकर
तुम जलने लगोगी
कसमसाया करोगी?


जिससे तुमने चाहा है
बेहतर किसको
जिसकी तुम मुहब्बत को
खुद पर चाहती हो !
उसको बनाने को
बेहतर उसी से
किसे तुम हर बखत
आजमाया करोगी?

कल न पागलों–सा कोई
तारीफ कर दे,
कोई तुमको हंसाने को
दो जहां एक कर दे,
किसे गालियां तुम
जी भर के दोगी,
किसको गाहे–बगाहे
झांक लोगी निकल के
किसको तुम मुहब्बत से
नफरत करोगी?

बीत जायेंगे दिन
चार ये भी
चार दिन मे,
चार किस्से जुटाकर
चार दिन तक कहोगी,
चार नाखुश रहोगी
चार दिलफेंक होगी
पर जब वफा की 
तारीफ होगी
तो किसे याद कर
आंख को नम करोगी?


Thursday 18 November 2021

बहस

तुम आ जाती
और मिल जाती,
तो दर्द मेरा 
कुछ दूर होता,

तुम मिलकर
हाथ पकड़ लेती,
आंखों से मुझे जकड़ लेती
जज्बात मेरे कुछ नम होते,

यूं तो तुमने बहुत कहा
यूं तो मैने बहुत सुना,
पर बिना कहे भी कुछ बाते
जब हममे–तुममे हो जाती,
तो भाव मेरे कुछ बढ़ जाते।

Wednesday 17 November 2021

लीलाधर

16 कलाओं वाले
आधुनिक हिंदी के श्री कृष्ण

तुम रास–रंग के वादक
तुम युवाओं के अभिप्राय
जब वासना मन पर आच्छादित
तुम प्रेम के अंकुर प्राण

तुम चलचित्रों के कवि
तुम अव्वल प्रस्तुत कर्ता
मुनव्वर कहते तुम शावक
पर तुम्ही हो गोवर्धन धर्ता

तुम राजनीति के प्रदर्शक
पर नही हो उसमे डूबे,
तुम त्योहार पे घर भी आए
पर नही कभी ललचाए,

तुम सारथी हो भीड़ के 
भारत के पुत्र तुम,
थे कृष्ण के बस अर्जुन
पर लाखों के गुरु तुम,

तुम YouTube पर बताते
गीता सरीखी इतिहास,
कवि चर्चा का भाग बनते
लाते बात में भी रास,

महारास तुम हो करते
आधुनिक तकनीक से,
थे कृष्ण जैसे लीला
करके दिखाते तुम !



Monday 15 November 2021

चर्चा

चर्चा हुई, चर्चा हुई,
बहुत आज चर्चा हुई,
कुछ तुम कहे
कुछ हम कहे
बात बढ़ती चल गई,

चर्चा हुई, चर्चा हुई
भूल गए बात को,
पर याद रहा बात कैसे
नाप गई औकात को?

बैर का पेड़

जिस रास्ते पर
चलते थे,
खेलते थे, खाते थे,
जिस रास्ते पर
कर के टट्टी,
हम लज्जा में मुस्काते थे,

उस रास्ते पर आज है
बहुत फैला पेड़,
वह रास्ते पर आज फलते
मीठे–मीठे बेर,

यह बैर का जो पेड़ है
यह कब लगा और बढ़ गया,
कब से हमने छोड़ दिया
रास्ते पर निकलना,

कब दिलों की बैर हमने
राम के घर में रखा,
कब–से हंसना–मिलना
गुनाह ही समझ लिया,

बैर का पेड़ उग आया है
अपने आप ही, 
कांटे बिछाकर राह मे
फल लगाता मीठे ही!

बवंडर

एक बवंडर है उठा
तन के मंदिर धाम मे,
यह बवंडर है बड़ा–सा
विचारों के संग्राम मे,

यह बवंडर तन का लेकर
उड़ चला है, धूल–सा,
यह बवंडर एक तरफा
एक गया है भूल–सा,

यह बवंडर मै पे सज्जित
मै ही इसके अश्व हैं,
यह बवंडर है हवा–सा
सिर ना इसके पैर हैं,

यह बढ़े तो और को
करने ही लगता पददलित,
यह बवंडर आइना–सा
खुद को देखे हर जगह,

खुद को पाए न कभी जब
यह बड़े आवेग मे,
खुद को करता है ये लज्जित
स्वर्ग के ही द्वेष मे,

स्वर्ग इसका है मनस मे
उसको ढूंढे स्वर्ग मे,
राम रखकर यह हृदय का
राम ढूंढे देश मे,

कब थमा है यह बवंडर
जो सत्य से ही दूर है,
यह पड़ा है कल्पना मे
मद मे अपने चूर है,

राम की बयार इसको
ला सकेगी धरा पर,
यह राम खुद मान बैठा
क्या नाम ले यह राम का?

Sunday 14 November 2021

गुड़चूंटा

मैंने भी गुड़चूंटा देखा
लपट के पकड़ को पकड़े देखा

लसर–लसर जब
बहुत हो गया,
चाट–चाट कर
लड़ते देखा

इधर घुमाया, उधर घुमाया
पर मै पकड़ छुड़ा न पाया,
उसको जितना दूर भगाया
और जबर से लपटे पाया,

उसको पता थी
बहुत–सी बातें,
खुचर करने की
सारी चाहतें,
उसको जब–जब
जो समझाया,
उसमे नुक्ता
उसने बताया,
पर ज्ञान को जब मै
नमन किया तो,
उसने पीछे
हाथ हटाया

जब दूर हो गया
मै थोड़ा–सा,
उसको मैने
पीछे पाया।

मैने उसमे 
खुद को देखा,
मै था वो तब
जैसा देखा,

मन की गति है
बचने वाली,
बैठ के बातें
करने वाली,
उसको किसने
कब समझाया,
मन तो है एक गुड़चुंटा
उसने भी गुड़चुंटा देखा।

Wednesday 10 November 2021

लकीर

मिटाती हो, बनाती हो
मेरी तकदीर हाथ पर,
तुम प्यार करती हो मुझे
देती नही हो साथ पर,

हटाती हो फोन मे से
मेरा नंबर, हटाने के लिए,
दिलों में याद रखती हो मगर
तकिया बनाने के लिए,

मेरा भी जिक्र करती हो
बताने के लिए, जताने के लिए,
मेरी भी फिक्र करती हो
मुझे आगे बढ़ने के लिए,

मुझे पानी की लकिरों
की तरह,
बनाकर भूल न जाती,
पत्थर पर खचाकर
खुद की धारें
नोक करती हो,

मुझे भुलाकर चैन से
तुम सो नहीं पाती,
मुझे तुम याद आती हो
मुझे जब याद करती हो !

Sunday 7 November 2021

विचरण

करता है तो करने दो
किसने उसको रोका है,
मै देख रहा हूं बस उसको
वो किसको–किसको टोका है

मै देख रहा हूं, आगे–आगे
वो क्या–क्या कर के देखेगा,
वो किससे जाकर प्रेम करेगा
किससे लड़कर देखेगा,

वो कौन–सा रोग बताएगा
अपनी छोटी–सी गलती को,
वो कौन–सी दवा ले आएगा
आब–ए–ज़मज़म की धरती का,

वो स्वाद का खाना खाने को
कितनी रोटी छोड़ेगा,
वो अपनी बंद किताबों पर
कितनी सीलन जड़ देगा,

वो थोड़ा इधर चलेगा 
वो थोड़ा उधर चलेगा,
वो अपनी छोटी कसरत
संसार की समझ, समझ लेगा,

मै देखूं कब तक करता है
जो आज वो करने बैठा है
जो आज है लगता बहुत बड़ा
‘मन’ उसमे कब तक रहता है ?


सन्नाटा

सन्नाटे–सा पसर गया है
आज तेरे जाने के बाद,

तुम होते थे तो चौराहों पर
हंसी–ठिठोली होती थी,
तुम होते थे तो दिन मे होली
रात दिवाली सजती थी,

तुम होते थे तो सेल्फी लेकर
"status" सभी लगाते थे,
तुम होते थे तो डेग लगाकर
गाने जोर बजाते थे,

तुम होते थे मम्मी उठकर
रोज टहलने जाती थी,
तुम होते थे तो पापा अपना
फिकर भूल मुस्काते थे,

तुम होते थे तो हर मजाक पर
परिवार साथ मे हंसता था,
तुम होते थे तो कठिन वक्त भी
‘Cake–walk’ सा लगता था,

तुम हंसी ढूंढ लेकर आते थे
छोटी–छोटी बातों मे,
कोई खेल–मदारी क्या देगा
जो मजा तुम्हारी यादों मे,

तुम होते थे तो लड़ने वाले
साथ मे हाथ लगाते थे,
तुम होते थे तो खाने वाले
पूड़ियाँ मांग के खाते थे,

तुम होते थे चाय–पराठे
चुस्की लेकर खाते थे,
तुम होते थे तो सुबह जलेबी
शाम को रसगुल्ले लाते थे,

वो सुबह को छत पर योग करना
बातें करना बड़ी–बड़ी,
वो जीवन की planning करना
‘निष्कासन’ करना घड़ी–घड़ी,

वो रात को अपना दर्द सुनाकर
सोफे पर ही सो जाना,
वो दही–मलाई रोज का खाना
टट्टी करना जभई लगी,

तुम होते थे खुश रहने की
कला सभी को आती थी,
तुम होते थे तो हंसते–हंसते
हफ्ते भी एक पल मे बीते जाते थे

अब नहीं तुम्हारा सुबह का हंसना
शाम का जिंदादिल करना,
अब नहीं तुम्हारा गाना गाना
रात का भोजन संग करना,

भूख–प्यास सब बदल गया है
साथ तेरे खाने के बाद
अगली बार तुम कब आओगे
आज चले जाने के बाद!

Saturday 6 November 2021

माता मंथरा की दीवाली

माँ मंथरा प्रसन्न चित्त
राज धर्म कर रही,
राम मिले आजभर
विदा उन्हें कर रही –

"वलकल वस्त्र पहन लो राम,
सीता को संग ले लो राम
लक्ष्मण भी संग जायेगा
साज तिलक सब तज दो राम,

वन मे रहोगे चौदह–साल
देखोगे भारत का हाल
मुनि–तपस्वी जानेंगे
वनचर पांव पखारेंगे

केशों को बढ़ने दो राम
कुंजों मे बंधने दो राम
नगर के सुख से वंचित हो
पांव मे कांटे चुभने दो

चेहरे पर मुस्कान रहे
भाई भरत का ध्यान रहे
राजा बन राज्य संभालेगा
जनता में जमने दो राम

तुम मेरे नही तो क्या मतलब
भरत सही, बढ़िया है सब
मां कैकेयी भी तुम्हारी है
वह राज–माता की अधिकारी है

उसको भी खुश कर दो राम
हमको धन्य भी कर दो राम
महल का मान बढ़ाएगी
ख्याति जग तक पहुंचाएगी

भरत–सा राजा क्या होगा
दशरथ का अनुचर क्या होगा
युद्धों मे नाम कमाएगा
प्रजा रंजन में लग जायेगा

हम महल मे दीप जलाये
खुशियाँ खूब लुटाएंगे,
भरत करेगा राज मगन
हम उसके चारण गायेंगे !"

राम ने कहा "तथास्तु!"
मनोकामना तुम्हारी पूरी हो,
आनंद को त्याग कर सुख भर लो
माँ, राम से तुम ही धनी रहो,

जग ने मांगा था राम का नाम
तुमने मांगा राम का धाम,
भरत करेंगे राम का काम
भावना मनुज की उसके नाम,

मै चला भ्रमण के पथ पर
राज करो तुम जी भर के !

आशीर्वाद

राम आप पर कृपा करें !

वाणी में मधुरता आए,
विचारो मे सरलता आए,
संवाद में संवेग हो,
कर्मों मे आवेग हो,
व्यवहार मै समरसता हो,
मौजों मे अल्हड़ता हो,
जिससे मिले वो खुश हो जाए,
देख के आपको दिन बन जाए,
चेहरे पर मुस्कान रहे,
आंखों मे इंसान रहे,
हाथ उठे तो साथ के लिए,
बात बढ़े तो कल्याण के लिए,
यादों मे सिया–राम रहें,
हृदय–कुंज हनुमान रहें।


Tuesday 2 November 2021

बेरियाँ

छोटी–छोटी, लाल–लाल
चमकदार, रसीली
और लुभावनी
बेरियाँ मनोहारी,

डालियों से लटकती
झुंड–की–झुंड,
एक के पास एक
काली–लाल मकरंद,

हमारा ध्यान खींचती
नीची और उचकती
हवा में यूं लहराती
पास आती, दूर जाती
डालियों पर लटकती
पर हमारी बन जाती
ये मनोहर बेरियाँ,

हम उचक–उचक कर
कूद कर,
कुछ छरको मे लपेटकर,
नख और धागों में बांधकर
पत्थर–कंकड़ फेंककर
खींचना चाहते नीचे
ये ललचाती बेरियाँ !

पर हाथ नहीं आती
और दूर नहीं जाती
बस हवा मे ही लहराती
ये मधुकण की चासनी

कभी–कभी मिल जाती
एक–दो खुद टपक जाती
या हवा के हल्के झोंखों से
टूट के गिर जाती
ये सरल–सी बेरियाँ,

पर डर से 
या फिर थकन से
जब हाथ नहीं आती
तो खट्टे अंगूर–सी
लगती हैं ये बेरियाँ,

ये मेरे मन की 
मधुर–सी तरंग
उठती–गिरती बेरियाँ,
राम से उपजी
राम से पहले
मुझे लुभाती बेरियाँ!!



Monday 1 November 2021

बेरुखी

ये बेरुखी है
कुछ दिन की,
कुछ दिन का ये
सवाल है
तुमको मुझसे
और मुझको तुमसे

तुम थे जो नही
कभी जो
किसी भी तरह के
तुम करते तो थे
ना वो बातें

मै थी मुस्कुराती
तो तुम मुस्कुराते
मेरे होंठों को पढ़ते
मुझको सुनाते

मै थी पीती
रात के नम से
शबनम
आंख से मै तुम्हारी
खुद की आंखों मे
भिगोती,
सोख लेती तुम्हारी
गम और अवसाद
ना रोती,

पर यही है
जुस्तजू की,
मेरी उंगली
पकड़कर
थाम के हाथ
किसिका
तुम चले क्यूं गए,
छोड़कर मुझको
तनहा,

बेरुखी है
बखत की,
बखत से कटेगी
मै तो चली हूं
बहुत दर से मिलकर
हर दर से घूलकर
फिर तुमसे मिलूंगी

बेरुखी ये तुम्हारी
तुमसे हमारी
तब तक रहेगी
तुम्हे भी सालेगी
मुझे भी सालेगी !

नवरात्र

भावनाओं की कलश  हँसी की श्रोत, अहम को घोल लेती  तुम शीतल जल, तुम रंगहीन निष्पाप  मेरी घुला विचार, मेरे सपनों के चित्रपट  तुमसे बनते नीलकंठ, ...