Monday 22 November 2021

आईना

जब आईने को देखता हूं
देखता हूं कुछ अधूरा–सा,
कुछ रह गया है नाक पर
कुछ गाल पर भी रह गया,

कुछ मन मे है, कुछ मन मे था
कुछ आ गया, कुछ आया नही
कुछ कर दिया, कुछ किया नही
कुछ पा लिया, कुछ पाया नही

हर पल में बसा है मेरे
कुछ दास्तान की चाह
जो लिखा हुआ था पढ़ा नही
कुछ लिख लेने की चाह

आईने मे ढूंढता हूं, मै अधुरपन,
अधूरे ज्ञान की मै पूर्णिमा मे
ढूंढता चंदन,
चंदन की महक मे, बाँवरा हूं,
मै ढूंढता मकसद का जीवन
भूल कर जीवन,

मृग बना मन,
स्वर्ण का तन
पांव मे थिरकन,
आईने के सामने
है राम को छलने
पर राम जैसा आईना
पहचानता मुझको,
बाण–सा है भेद देता
मारीच सरीखा मन,

आईने मे ढूंढता हूं, 
जो मै होना चाहता हूं
पर आईना तो है बना
दिखला रहा सदियों–से
मुझको और सबको
जो था मै नहीं, 
जो हूं मै !




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