चमकदार, रसीली
और लुभावनी
बेरियाँ मनोहारी,
डालियों से लटकती
झुंड–की–झुंड,
एक के पास एक
काली–लाल मकरंद,
हमारा ध्यान खींचती
नीची और उचकती
हवा में यूं लहराती
पास आती, दूर जाती
डालियों पर लटकती
पर हमारी बन जाती
ये मनोहर बेरियाँ,
हम उचक–उचक कर
कूद कर,
कुछ छरको मे लपेटकर,
नख और धागों में बांधकर
पत्थर–कंकड़ फेंककर
खींचना चाहते नीचे
ये ललचाती बेरियाँ !
पर हाथ नहीं आती
और दूर नहीं जाती
बस हवा मे ही लहराती
ये मधुकण की चासनी
कभी–कभी मिल जाती
एक–दो खुद टपक जाती
या हवा के हल्के झोंखों से
टूट के गिर जाती
ये सरल–सी बेरियाँ,
पर डर से
या फिर थकन से
जब हाथ नहीं आती
तो खट्टे अंगूर–सी
लगती हैं ये बेरियाँ,
ये मेरे मन की
मधुर–सी तरंग
उठती–गिरती बेरियाँ,
राम से उपजी
राम से पहले
मुझे लुभाती बेरियाँ!!
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