कुछ दिन की,
कुछ दिन का ये
सवाल है
तुमको मुझसे
और मुझको तुमसे
तुम थे जो नही
कभी जो
किसी भी तरह के
तुम करते तो थे
ना वो बातें
मै थी मुस्कुराती
तो तुम मुस्कुराते
मेरे होंठों को पढ़ते
मुझको सुनाते
मै थी पीती
रात के नम से
शबनम
आंख से मै तुम्हारी
खुद की आंखों मे
भिगोती,
सोख लेती तुम्हारी
गम और अवसाद
ना रोती,
पर यही है
जुस्तजू की,
मेरी उंगली
पकड़कर
थाम के हाथ
किसिका
तुम चले क्यूं गए,
छोड़कर मुझको
तनहा,
बेरुखी है
बखत की,
बखत से कटेगी
मै तो चली हूं
बहुत दर से मिलकर
हर दर से घूलकर
फिर तुमसे मिलूंगी
बेरुखी ये तुम्हारी
तुमसे हमारी
तब तक रहेगी
तुम्हे भी सालेगी
मुझे भी सालेगी !
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