तुम कहती हो तो
सच लगता है,
तुम कहती हो तो
लगता है असर होगा,
तुम बैठी हो तो
सब शांति–से
अपने ही घर पर
कुर्सी के बिना
जमीन पर बैठ जाते है,
तुम चुप हो आज तो
सब मौन हैं और
शांत–चित्त हैं,
बिना कहे भी
बोल सकते हैं
ये आज समझ आया,
तुम आगे आई हो तो
पीछे वाला मुस्कुरा रहा है,
उसकी लाठी अब आगे
खींचने वाली
खुद किसी की लाठी
जो बन गई है,
तुम मुस्कुराती हो तो
लोग अपना गम भुला
कर भूल जाते हैं
खुद को भी और
गम को भी,
कब शोर मे खुद की
चर्चा सुनने को
बेताब नही हैं,
तुम चलती हो तो
वो बेटी, बहन और
मां का झरोखा देखने
आ जाते हैं,
विदा करने और लियवाने,
पर बस विदा करने,
इस बात की चिंता बगैर
की घर ठीक से पहुंच जाओगी,
तुम्हारी आवाज़ मे
रज़िया सुल्तान की
झिझक नही है,
दिद्दा की छुपन
अहिल्या की तपन नही है,
नही आखिरी दांव है
झांसी की कोई,
नेहरू के वारिस का
टशन नही है,
तुम आराम से आई हो
और आराम से चलोगी,
उन सब की पहचान बनकर,
जो अब तक
गुमशुदा थीं अनजान बन
और घूम रही थी
आज़ाद बनकर,
और समझ नही पा रही थीं
क्यूं लोग कर नही रहे वो
बहुत आसान है जो
बस एक झाड़ू उठाने
और लगाने जैसा?
दूध खौलने और
पौधा लगाने जैसा?
घर को सजाने जैसा
झड़पने और मुस्कुराने जैसा?
राम के वन जाने जैसा !
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