करते लीला जानकर,
खेलते–खाते, खेल रचाते
खेल को खेल भी जानकर,
कर्म को करते
पर आशक्त न होकर,
पर कर्म करे तो
सर्वज्ञ न होकर,
कर्म करें,
फल–विमुख न होकर
फल भोगें
कामातुर होकर,
ना कर्म बड़ा,
ना फल अंतिम
जीवन भाव मे
जीवन अंतिम
जीवन जाने को चाहे मन,
पर जीवन नहीं
मन मे बंधित,
मन तो जीवन का
मन–रंजन,
जीवन का है बस
अंश महज़,
वह किधर–किधर
भी घूम तो ले,
पर लीलाधर को
क्या बुझे?
कर लीला और धर मुरली
वो समझ बिना भी
मिले–मिले!
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