Friday, 22 October 2021

मोहसिन

वो कौन सी दरख़्त का
फूल हो तुम
जिसकी महक से
गुलिस्तान सारे
उमड़े हुए हैं,

कुछ चिराग की–सी
रोशन हो
किस चौखट से तुम
की नूर के 
सहर से फैले हुए हैं,

तुम होती तो
कब का ही अवसाद
पिघल जाता,
कोई कविता नई लिखता
मैं गीत गुनगुनाता,
मैं बात और रात
को अलग कर नहीं
देख पाता, मैं सुबह
ओस की बूंद से उठाता,

मै कहता और सुनती तुम
कुछ उड़ती तितलियों की
कुछ चिड़ियों की गीतों
की बातें,
और कुछ यूं हुआ,
और कुछ यूं की
कुछ उधर था सही और
कुछ इसका गलत,
वही जो चल रहा है
देखते हुए हो जाता,

मोहसिन थी तुम
रमजान की रात चांद,
सब शांत है तुम्हारे साथ
और गुदबुदाहट–सी
तुम्हारे जाने के बाद।

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