कविता कोई पढ़ दो
अपनी आवाज़ मे,
कुछ ना सोची हो मैने
कुछ तरीके नए हों
कुछ किस्से अलग हो
कुछ हो तर्जुमा भी
एकदम से अलग
कुछ मकसद पे मेरी
फब्ती कोई कस दो,
अपनी जुबां से
कविता मेरी पढ़ दो।
अब ना पूछूंगा मै की
क्या कर रही हो,
किससे जुड़ी हो
किससे अलग हो,
किसकी किस्मत पे
सितारे तुम जड़ रही हो?
पर सड़क के किनारे
बैठने ही को मिल लो,
कुछ ना बोलो मगर
आंख से कुछ तो कह दो,
हां भी नहीं और ना भी नहीं
पर उंगली पकड़कर
अपना हक तो रख लो,
मेरी कोई तुम पढ़कर सुना दो।
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