Monday 20 September 2021

पंखा

पंखा नही चल रहा है
पंखा होते हुए भी,
नही चला रहा है
ये तो पंखे वाला मूर्ख है।

पंखा नही है जिसके पास
वह तो अव्वल मूर्ख है,
गरीब है, नादान है
निकम्मा है, बेईमान है
अज्ञानी है, असमर्थ है,
मेरे हैसियत के नीचे है,
मेरी समझ के बाहर है।

पंखा नही है जिसके पास,
उसके पास विचार क्या हो ?
पंखा नहीं है जिसके पास
कोई उसके पास क्यूं हो?
वह पंखे बिना जो बैठेगा
तर–बतर पसीने से होगा,
हवा न होगी उसके पास
तो कितना बुरा वो महकेगा?

छी: ! ये कैसा पढ़ा–लिखा सा
इसे पंखे की भी समझ नहीं,
आधुनिक समाज को क्या देखा
जो पंखे की भी कदर नहीं?

मै बिन पंखे के जीवन मे
एक पल भी जिंदा ना बैठूं,
जिसके घर मे पंखा ना
उसके घर भी न जाऊं !
उस दुकान से क्या खरीद करूं
जो पंखे के बिना ही चलता है,
उसको मै सौदा क्या बेचूं
जो पंखा बिना सब सहता है।

मैने सीमित खुद को करता हूं
बस पंखे के ही इर्द–गिर्द,
वह काम नहीं मै कर सकता
जो पंखे से हो दूर–दूर !
मै शांति–निकेतन में जाकर
पढ़ना छोड़ भी सकता हूं,
मै रामचंद्र की पंचवटी को
हाथ जोड़कर हटता हूं,
मै चुनाव की रैली मे
और वोट डालने नही गया,
सब तो कर आए पंचकोश
मै पंखे में ही सोता हूं,

कोई धर्म नहीं, सत्संग नहीं,
कोई कर्म नहीं, अभ्यास नहीं
बिन मेरे पंखा कही नही,
मै पंखे के बिन कहीं नहीं,
मै पंखा चलाके बैठा,
मै पंखे से ही लटका हूं,
अब चलना–फिरना भूल गया,
मै पंखे तक ही अटका हूं,

मै ये पंखा चलाता हूं,
या पंखा मुझे चलाता है?

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