चला उड़ दूर,
उड़ा-उड़ा
फुर्र-फुर्र,
छोड़ उड़ गया
रामवृक्ष,
मन के होते जो
अधर तृप्त,
कोलाहल से
डाली झंकृत,
भव के होते
पल्लव सुदीप्त,
भय से विस्मृत
कातर दो दीप,
सिरहन करते
मय सरीसृप,
उड़ते पाखी
अब नए ठौर,
जहां राम का
सदा दौर,
होता मलिन
अब रामवृक्ष!
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