तुम छुपी हुयी हो
जो नहीं जानते सब,
तुम अंदर मे समायी
कहाँ और कब?
तुमको बताऊँ किसको
तुमको जानेगा कौन?
तुमको छुपाऊं कितना
कितना रहूँगा मौन?
तुम्हारी किरनें फैल जाती
जब होता सब शांत,
तुम अब साथ मेरे
हर कहीं, हर बार हो
तुम ही अंधकार हो!
जहा सूर्य नहीं उगा
जहा कभी सूर्यास्त है,
जहा दीपक बुझ गया
जहा तम साम्राज्य है,
वही तुम मुझपर
असीमित विस्तार हो,
जहा है नहीं कोई,
जहा सब उजाले बंद
तुम वहाँ भी बरकरार हो,
तुम आदि अंधकार हो!
तुमको मूंद लूँ मुट्ठी मे
तुमको खोल दूँ असमान मे
तुमको लिख लूँ डायरी मे
तुमको रख लूँ जेबों मे
तुम मेरी हकीकतों मे
हर समय ही गुलज़ार हो
समझेगा ये ज़माना तुम
तुम कोई फनकार हो,
मुझे बाँध लेती हो
तुम मेरी अहंकार हो,
तुम राम की नकाब धरे
मेरा तिरस्कार हो,
चकाचौंध करने वाली
तुम मेरी अंधकार हो!
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