Thursday 1 November 2018

तुम क्या सोचती हो ?

तुम्हारे ज़हन मे
बहुत खलबली है,
तुम्हारे नज़र मे
बड़ी जुस्तजूँ है,

क्यूँ अपनी घुटन को
हवा दे रही हो,
क्यूँ भेद अपने
जताती नहीं हो ?

तुम क्या सोचती हो, बताती नहीं हो !

तुम्हारे कंधों पे
बाज़ू चढ़ाया,
तुमको ही मैंने
गले भी लगाया,

तुम्हारी scooty पे
मै पीछे बैठा,
मंदिर के चौखट से
तुमको ही देखा,

तुम क्यूँ अब मंदिर मे
आती नहीं हो,
मेरे आग़ोश में भी
समाती नही हो,

पर कंधों से अपनी
मेरी ये बाँहें,
क्यूँ कर कभी तुम
हटाती नहीं हो ?

तुम क्या सोचती हो, बताती नहीं हो !

बहुत कुछ है जो तुम
बताती नही हो,
पर लगता है यूँ
कुछ छुपाती नहीं हो,

करती थी बचपन से
Music की classes,
रामायण के चर्चे,
Cartoon की बातें,

सो जाती थी पेड़ों की
झुर्मुठ में खोकर,
लड़ती थी भाई से
खुलकर-झपटकर,

सुनाती हो क़िस्से
मन मे खिल-खिलाकर,
पर क्यूँ लबों से
मुस्कुराती नहीं हो ?

तुम क्या सोचती हो, बताती नहीं हो !

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