Thursday 8 March 2018

निष्ठुर

ढलती हुयी निशा को,
प्रकाश निष्ठुर है,
उफ़नती हुई घटा को,
बरसात निष्ठुर है,
फैली हुई दिशा को,
आकाश निष्ठुर है,
उभरी हुयी ऊषा को,
अंगार निष्ठुर है ।

मन की तरंग को तो,
अल्फ़ाश निष्ठुर है,
निर्गुण हुए ख़ुदा को,
साकार निष्ठुर है,
चढ़ते हुए नशे को,
आभास निष्ठुर है,
मेरे अन्त:करण को,
भ्रमजाल निष्ठुर है।

उसराती हुयी धरा को,
क्या बाढ़ निष्ठुर है ?
'बापू' के देश मे,
क्या 'मोदी-सरकार' निष्ठुर है ?
लिखते हुए प्रेमचंद को,
क्या आराम निष्ठुर है ?
खेलते हुए ध्यानचंद को,
कोई 'ज्ञान' निष्ठुर है ?

क्यूँ कर मेरी दुआ को,
इंकार निष्ठुर है ?
क्या तुम ही निष्ठुर हो ?
या की प्यार निष्ठुर है ?

ज़रूरी है,

कालचक्र की फिर से,
शुरुआत हो जाए,
किसी को अपनी सीमा का,
ज़रा एहसास हो जाए,
सृजन का फिर कहीं,
नव-रूप में आग़ाज़ हो जाए।

अतः ना तुम ही निष्ठुर हो,
ना ही प्यार निष्ठुर है ।।

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