मुझे फिर से आज
बृजेश की माँ दिखी
वही लाल रेशों वाली
फैली आँखें,
जो सुख गयी थी,
कितनी रात जागे।
आँखों से टपकता
वही ममत्व,
दर्द की चायछन्नी से छना
समान घनत्व।
वही छरहरी
कुपोषित काया,
मिलों तक रोज़
चली हुयी काया,
नटनी की तरह
बचपन से चली,
बीच-बीच मे
थोड़ा खाया।
बिरजु की माँ
कबसे डटी थी,
आज दिनभर वो
Aadhar की line में खड़ी थी।
बृजेश की माँ दिखी
वही लाल रेशों वाली
फैली आँखें,
जो सुख गयी थी,
कितनी रात जागे।
आँखों से टपकता
वही ममत्व,
दर्द की चायछन्नी से छना
समान घनत्व।
वही छरहरी
कुपोषित काया,
मिलों तक रोज़
चली हुयी काया,
नटनी की तरह
बचपन से चली,
बीच-बीच मे
थोड़ा खाया।
बिरजु की माँ
कबसे डटी थी,
आज दिनभर वो
Aadhar की line में खड़ी थी।
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