एक डायन पकड़ी गयी है,
सिखचों में जकड़ी गयी है।
बाल खुले हैं,
रूखे घने हैं।
आँखें बड़ी हैं,
ग़ुस्से में चौड़ी हैं।
पलकें मोटी हैं,
काली हैं,
रातभर रोकर,
थकान से फूली हैं।
नहायी नहीं है,
महक भी रही है,
दो दिन से कोने के,
कमरे मे जो पड़ी है।
पर आश्चर्य,
दाँत छोटे ही है, ख़ूँख़ार नहीं है।
होंठ सूखे है, lipstick नहीं है।
बच्चों को खाने की मंशा नही है,
बड़ों को पछाड़े, वो हिम्मत नही है।
नहीं ख़ून पीती, वो पानी गटकती।
खाने को छोटी कटोरी, तरसती।
लगता है वो, पहले स्त्री रही है !
बड़ी मेहनत से डायन बनायी गयी है।
ममता दिखाती तो,
माँ रहती,
पत्नी या बेटी ही रहती।
रसोई, गोशालों मे
महफ़ूज़ रहती।
लगता है जीने का हक माँग बैठी !
सिखचों में जकड़ी गयी है।
बाल खुले हैं,
रूखे घने हैं।
आँखें बड़ी हैं,
ग़ुस्से में चौड़ी हैं।
पलकें मोटी हैं,
काली हैं,
रातभर रोकर,
थकान से फूली हैं।
नहायी नहीं है,
महक भी रही है,
दो दिन से कोने के,
कमरे मे जो पड़ी है।
पर आश्चर्य,
दाँत छोटे ही है, ख़ूँख़ार नहीं है।
होंठ सूखे है, lipstick नहीं है।
बच्चों को खाने की मंशा नही है,
बड़ों को पछाड़े, वो हिम्मत नही है।
नहीं ख़ून पीती, वो पानी गटकती।
खाने को छोटी कटोरी, तरसती।
लगता है वो, पहले स्त्री रही है !
बड़ी मेहनत से डायन बनायी गयी है।
ममता दिखाती तो,
माँ रहती,
पत्नी या बेटी ही रहती।
रसोई, गोशालों मे
महफ़ूज़ रहती।
लगता है जीने का हक माँग बैठी !
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