चित्रण:श्वेता |
पूनम की रात,
रोशनी की बरसात
फलक का चाँद।
रोशनी उतरती
परत दर परत,
हवा की सतह पर
क़दम रखती।
छन से बिखरती
कोई एक चंचल,
हवा की चुभन पर
गिरती-लुढ़कती,
मदमस्त छलकती।
सघन सी फ़िजा के
कई बिंदुओं पर,
चूमे सरल सी,
कई गाँठ खुलती।
कोई जाके बैठी
फूलों की नाज़ुकी पर
चौपाल है यह
गुलाबी सफ़ेदी।
डालियों की अँगड़ायी
हल्की जम्हाई,
बाज़ुओं से लटकती
अंधेरों में छुपकर
बत्ती जलाती,
फिर छुप जाती, सताती।
रात थक के बैठी
नहाकर सँवरती,
रोशनी की गिरह मे
सृंगार उघरती।
आज बिन परीक्षा
कोई चित्र रंगती,
प्रकृति वसंत का
नया गीत लिखती।
नज़र से निहारा
अधूरा ही पाया,
सुना राग दीपक
नहीं मन सुहाया।
फूलों की ख़ुशबू
थी मुँह चिढ़ाती,
हवा बाँह छूकर
ना सुलाती, जगाती।
तुम्हारे अधर के
भीगे सतह पर,
रात और रोशनी
मिलकर चमकती।
तुम्हारे और मेरे
अधर के मिलन पर,
घूलती-फिसलती,
एक हो जाती
रात और रोशनी।
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