मुझको आती रही।
तुम जाती रही 
रात भर दूर मुझसे,
मुझे शिकवे सुनाती रही 
रात भर,
तुमसे चुप भी रहा और मनाता रहा,
तुमको खुद भी मुनासिब सुनाता रहा,
तुम न मानी मगर
मै बहुत ही समझाता रहा।
रात भर दिन की बात,
उभरती रही, 
रात भर दरवाजे तक बढ़ती रही 
रात भर, दिन की रोशनी ढूंढती, 
तुम उजाले से बिस्तर हटाती रही, 
मै न सोया, तुम न सोई, 
तुम मुझे रात भर यूं जगाती रही। 
मैने करवट ली, 
तो तुम नहीं थी बगल मे, 
तुम बगल में खड़ी बस मुझे 
हिलाती रही, डूलाती रही,
मै सोया तो था तुम्हे पाने के लिए 
तुम यही जानकर मुझे तिलमिलाती रही,
मेरे जीवन से जाना भर 
मुनासिब न था,
तुम सपनों से भी खुद को चुराती रही। 
मै जागा था जब रुखसत के लिए, 
जब समेटे थे कपड़े उस घर के लिए,
पूछा मैने कि घर है यह किसके लिए?
तुम तवज्जो लिए महटियाती रही। 
रोने लगी जब खुदा के लिए, 
तुम दामन को मेरे भिगाती रही, 
जो ना कहा, तुम गुमां मे रही, 
आंसू से मुझको बताती रही, 
राम को रात भर तुम जगाती रही,
रात भर तुम भी रोती रही,
रात भर तुम मुझे भी रूलाती रही।
 
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