Thursday, 30 June 2022

चीख

              Film: Highway 
ऐसे ही नहीं
चीख रही होगी
चिड़ियां
पंखों के भीगने पर,
शायद वर्षों की
चीख है ये
दबी थी जो भीतर,
तड़पा रही थी जो
धीरे–धीरे,
कतर–कतर,

आज कूलर मे
सोने के लिए
जो लड़ गई चढ़क
वो गालियां दे रही है
दिल्ली की परी
उड़ –उड़कर,
अब नहीं छुपा
पा रही भीतर रखकर
दर्द की वो फांस
उभर गया है
जो रगड़ खाकर,

वो मां के हाथ
छुड़ा नहीं पाई
कुछ ऊपर चढ़कर,
चाचा की सताई
चुप रही रोकर
समझी नहीं थी तब
बड़ों की झड़प
मन मसोस कर
बैठी थी घुटने
लपेटकर,

आज भी देती दवा
मां को घोलकर,
मां हैं बहुत भोली
पागल ही समझकर
खुद की करती है
रेहगुजर,
शायद उसकी भी
आवाज़ बनी
बेटी बोलकर,

टपकती बूंद से
पत्तों की ओट से
आती हुई छनकर,
याद दिलाती होगी
किसी गीले हाथ की
पकड़ और रगड़,
घरों के ही तो छज्जे थे
जो आन पड़े गिरकर
छुपाए अब कहां स्तन
कहां कौमार्य होता तन,
आज चाची की तरह
भागी नहीं बहन,
आज चीखों से
उड़ाती धूल वो
और गिराती रेत
खंडहर,
ऐसे ही नहीं चीखी थी
भींग जाने पर,
कूलर मे सोना
था महज
एक आडंबर,
धड़ा–धड़ गिर रहे
हैं शब्द बाण 
कितने वर्षों पर,
आज चीखों से
संवर जाता
तन,मन,जीवन,
निखर जाता सर्वस्व,
चमक जाती है चिड़ियां
चीखकर, बिखरकर!

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