कोई हाथ से,
रज–रज
एक कविता,
ठोक–ठोक के
करता है,
कोई उद्दंड
मूढ़ को ठंडा,
दोनो करते
शीतल जल का
पात्र बनाने
की कोशिश,
पिघलाकर कोई
करे जतन,
पानी मे एक
घोलकर कण,
माटी के
पुतले अनेक,
गुरु देते उनको
रंग भेद,
दोनो के
अन्तर्मन को
करते थोड़ा गहरा,
कुंभकार और ठठेरा!🙏
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