Saturday, 31 May 2025

भ्रम जाल

कह दिया मजाक मे
देह के उल्लास में,
विनोद कर लिया
या किया था रंज,
और अलग-थलग 
जब हुआ बेरंग, 
छा गया भ्रमजाल
हो गया मैं तंग,

जो रचे किरदार 
जो दिया संवाद, 
आ गया बनकर
पूर्ण रुप विवाद, 
बना शब्द बाण
कर दिया प्रहार
भंग करके रंग 
छेड़कर विषाद,

अपने भीतर अनंत
गूंज उठा नाद,
गगनचुंबी गर्जन
अनंतिम हाहाकार, 
विप्लव विशाल 
प्रचंड पारावार, 
अट्टहास कठोर
आत्म पर आघात!

हिम्मत

नहीं रोकने की 
जुटाई वो हिम्मत, 
नहीं गालियों से 
जूझने भर थी हिम्मत, 
नहीं ही मिलाया
नजर भी विदा पर,
नहीं देखने की
आंसुओ की थी हिम्मत,
किया था जो वादा
निभाई न हिम्मत, 
तुम्हे गले भर लूं
दिखाई न हिम्मत, 
चलने को होगी 
बड़ी राहें अलग-थलग,
कहां मोड़ने की थी
राहों की हिम्मत!

वो गली

कैसे उस गली में
आऊंगा चलकर, 
जहां पर तुम्हारे 
हाथ धरकर बढ़ा था, 
कैसे वो देखूँगा 
मैं सब नज़ारा, 
जहां संग तुम्हारे 
मिला नजर घुमा था,
वो राह क्या होगी 
जहां तुम मिलोगी, 
कहां से चली थी 
कहां तक रहोगी, 
कहां बाज़ुओं की 
ऊंगली-सी दिखाकर,
मेरे खामोशी का 
शबब पूछ लोगी,
क्या कहकर बढ़ेंगे 
कदम तुमसे आगे
तुम मेरे वादों की
खबर पुछ लोगी!

Sunday, 25 May 2025

अकेली

जिन राहों पर वो साथ हमारे 
हाथ पकड़ कर जाती थी,
उन राहों पर कल खड़ा रहा
वो राह अकेली जाती है,
जिन किस्सों से मैं तंग हुआ
जो बार-बार दुहराती थी,
अब मन में उनकी ख़लिश रहे
बस याद अकेली आती है,
जिस दुकानदार के चाय के प्याले
हम साथ-साथ मे पीते थे,
जिनके खातों की मांग हमारी
कई माह रह जाती थी,
उनके पैसों को चुका किया
पर स्याह अकेली जाती है!

जिन हँसी-ठिठोली को गपशप से
हाथों-हाथ बनाते थे,
जिन बातों की आह पकड़
हम आंसूं रोक न पाते थे,
जिन वादों की कसमें हम
होंठ मिलाकर खाते थे,
उन जनम-जनम के वादों की
अब साख अकेली जाती है!

जिन बातों के फोन में चर्चे
कंबल मे छुप जाते थे,
जिन रातों के वक्त 
चांद के साथ निभाते थे,
जिन नींद के आगोश को
हम लोरियों-सा गाते थे,
जिन सिसकियों को हाथ धर
हम चूमते और पीते थे,
उन स्याह अंधेरी रातों की
बिसात अकेली जाती है!

जिन चौराहों के चाकों पर
हम आते-जाते मिलते थे,
जिन मोड़ों के सिग्नल पर
हम रुठकर पैदल चलते थे,
जिस स्टेशन के घाटों पर
हम साथ रोटियाँ खाते थे,
जिन कार्यालयों के उपवन से 
फूल तोड़कर लाते थे, 
जिस समय की कुछ पाबंदी मे
हम घड़ी से दौड़ लगाते थे, 
उन सीढियों के जीनों से 
मुलाकात अकेली जाती है!











Thursday, 22 May 2025

कली

धूप से लड़ी
हवाओं से खिली,
किसी सहारे के बिना
बेलों-सी चढ़ी,
मेरी उपवन की 
आखिरी कली!

सड़क के मोड़ पर
आकर मिली,
किसी भाव मे विकिर्ण 
किसी ताप से जली,
कई राह छोड़कर 
पगडण्डी पर चली, 
मेरे जेठ की धूप मे
छांव-सी अली!


Monday, 19 May 2025

बापू का फैशन

क्या बापू का फैशन था 
क्या मोहन का मोर-पंख,
क्या लंगोट की वाणी थी 
क्या बिगुल बजा क्या शंख, 

क्या सत्य की समझ नयी जैसी 
क्या चाल नई मतवाली थी 
क्या सबको लेकर चलना था 
किससे सकल चुराई थी?

क्या मोटर चाह के लेना था 
क्या रेल के डिब्बे फर्स्ट क्लास, 
क्या लोग से दिखना अलग-थलग
क्या उनको राह दिखानी थी?

Sunday, 11 May 2025

दादी

 दादी आती थीं बात करने 
कुछ भूल चुकी थी सब 
कुछ बचे हुए हो भुलाने, 
अपना रुतबा और शिकायत 
हमसे कहकर दुहराने, 

इधर से उधर 
और फिर कहीं और,
वो बातें करती थी 
बिना सर और पैर, 
जब याद आया बच्चा 
कह दी उसकी बात, 
और दिवंगत पति 
उनकी बड़ी औकात,
फिर नन्हा-सा पोता
और बहु की बात, 
उनके रोज़ के झंझट
और उठाते हाथ, 
दादी आती थी बताने 
धूप और बरसात

दादी का कंकाल 
बिस्तर से छोड़े पिंड, 
लाठी की टेक 
चले बाँधकर ज़िल्द, 
हरिया-झरिया का बंगाल 
छोटे कमरे का ओट,
और बहन-भाई का
मन मंदिर का खोट, 
सबको मिलती मुक्ति 
दादी का बैठा दर्द, 
दादी का मैं सबरी
दादी मेरी राम!🙏🏽😇

Friday, 9 May 2025

बल

बल है क्या जिसमें 
भय का सृजन हो, 
ना कांपते अधर 
न ग्लानि का असर,

मुस्कान हो और प्रार्थना
स्थिर खड़ी हो याचना,
शब्द शील बंध हों
धैर्य की हो धारणा,

यह बल हो प्रतिबिंब 
जिसमे देखे स्वयं को वीर,
इसमे बहुत चंचल 
हनुमान कब गंभीर?

राम का हो नाम
राम की हो आश,
राम के अश्रु
राम का ही बल!

जिम्मेवारी

लेकर बैठे हैं  खुद से जिम्मेवारी,  ये मानवता, ये हुजूम, ये देश, ये दफ्तर  ये खानदान, ये शहर, ये सफाई,  कुछ कमाई  एडमिशन और पढ़ाई,  आज की क्ल...