हाथ फिर से थाम कर
कुछ गली की, चौपाल की
कुछ खाक छानते हैं,
फिर से उसी गांव मे
जहां से भाग आए थे
दादा तुम्हारे
हाथ मे लेकर तुम्हे,
और माथे पर पोछकर
कुछ पसीने और
कुछ खून की बूंदे,
आओ हम लाहौर चलते हैं।
तल्ख हो जो गई
रूह तक बैठी वहसियत
पंथ के जो नाम से भी
हाथ झलते हैं,
की मांगते हैं
बंदूक की जो नाल
सीने चलनी करने को
बदले की बुझे तब आग,
की भूलकर को रोटियां
बदले की सेकते
तंदूर मे जो भाव,
और उसी आवेग मे
सरकार चुनते हैं,
उन नफरतों को मिटाने
आज फिर सरहद पार चलते है।
भीड़ मे होकर जो शामिल
आ गए गलबहियां कर
रोटी तो मुमकिन नहीं
दो वक्त रोते थे जो बच्चे
उनको खोकर लानतें
आ गए खाकर कमाने
शहर जो अपना चुके हैं
और मिट्टी सूंघकर बस
जो घरौंदो मे लौट आए
आज उनकी रूह पर
कुछ बाम मलते है,
उनको लेकर घर तुम्हारे
मिट्टी–वाले, एक बार चलते हैं,
फिर तुम्हारे गांव चलते हैं....
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