अंजन को तुम,
तुम माया युक्त
दीप्ति अगन,
प्यासी ग्रीवा की
व्याकुलता को
अधरों से देती
अमृ-वचन,
हिमाद्री मलय की
यज्ञ-भूमि में
रजनीगंध की
तीव्र चुभन,
तप्त धारा के
शोणित को,
स्थिर करने की
सौम्य छुअन,
राम श्रवण के
त्रेता की तुम,
मोहन-रूपा
मुरलीधरन,
क्रंदन को
आतुर जो मन,
आंचल से
सोखती अश्रुजल,
पीतल की
सर्वसुलभ कंचन,
अणस-कन्या, मोहिनी-जन्य
ओस-दूब की मधुर मिलन,
माटी-तृण की सेतु चरण,
तुम हरियाली-सी अर्धनग्न,
वर्तिका-किरण की आलिंगन,
शृंगार की शिखर चिरयौवन
स्थिर-प्रज्ञ और अल्हड़पन,
पोषित करती मद की प्याली
भोली-भाली तोशाली!
No comments:
Post a Comment