सब अपने दामन के दाग,
मिटाते आँसुओं से भिगोकर
अपने आँगन लगाते हैं
अपने कांटों से पुष्पित डाल,
अपने जुबान की
कभी आदतों की खुद,
वो बुझाते हैं
खुद के लगाए आग,
गाते हैं अपने राग
और पाते हैं
अपने किए का भाग,
जब मोल लेते हैं
किसी की जिंदगी से रंज
और बदले में उनको सुनाते तंज
फिर खुद ख़लिश सूने महल में
रह कर पूरे सन्न,
खुद ही भरते नीर
और खुद जुटाते अन्न,
यह और के नहीं काम
हमारे कर्म के ही दाम!
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