कुछ रह रहकर,
कुछ सुनकर
कुछ कहकर,
कुछ कीमतों के
बोझ में दबे हुए,
कुछ सत्य से
दूर तक चले हुए,
कभी खाकर
एक रोटी,
कभी भूखे
पेट सोकर,
कभी खुद पर
जोर से हँसकर,
कभी किसी से
छुपकर रोकर,
साधारण से
और कमतर,
कभी खुद
से भी बेहतर
लोग बनते हैं,
एक जीवन
के ऊपर,
कोई जरी लपेटकर
चमक और मुस्कान
अपने गले लगाकर
लोग बनते हैं!
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