Wednesday 12 June 2019

टूटी चप्पल

एक पल आवेग मे
दौड़ भागा वेग से,
हाथ आया कुछ ना मेरे
टूट गयी चप्पल !

एक बाजु टूँट गयी
दाहिने पाँव की,
पैर उठता भी नहीं था
घिसटती थी चाल ही।

मन मे कसक थी छूट की
आँख गीली हो गयी,
मन मे फिर आक्रोश आया
पर बाँह ढीली हो गयी।

पक्की सड़क को छोड़कर
गाँव की कच्ची धरी,
धूल-सज्जित हो गयी
चप्पल नवेली खेत की।

पर तो चप्पल था सहारा
एक अकेला, राह मे,
छोड़ पाता फिर भला क्यूँ
काँटे-कंकड़ झाड़ मे।

थी गनीमत भी ना इतनी
कीचड़ भी आया राह मे,
दौड़कर छलाँग मारूँ
अब कैसे अनुपात मे ?

इस तरफ़ भी, उस तरफ़ भी
कंकड़ पड़े थे चोख से,
सोच भी सकता नहीं था
चप्पल बिना मै कूद भी !

अब विकट गंभीर उलझन
किस तरह लाँघूँ समंदर,
क्षुद्र भी ना धर सकूँ मै
रूप सुरसा के विवर पर।

पर किरण की एक बिंदु
चमकती उस ओर से,
मानो मुझको दी दिलासा
जब तम घिरा घनघोर से।

उसने कहा कीचड़ नहीं ये
मिट्टी-पानी ही तो है,
धूल जाएगा एक बारी
जान पहले तो बचे।

मै निडर, संकोच लेकर
पैर मिट्टी मे रखा,
टूटे चप्पल को बचाना
ध्यान मन मे ना रखा।

चिपक गयी चप्पल
हो गयी अटल,
मैंने बायाँ पैर झटका
पार किया दलदल।

मै तो चल आया निकलकर
छूट गयी चप्पल,
अंत मुझको काम आयी
टूटी हुयी चप्पल।

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