Wednesday 12 June 2019

द्रोणाचार्य

मेरे मन मे बसी है एक मूरत
तुम्हारे से मिलती है एक सूरत
वही मेरे दिल का द्रोणाचार्य है,
'एकलव्य' के समझ का वही ज्ञान है।

एकलव्य तो बना था, बड़ा ही धनुर्धर
गुरु को समझ कर पत्थर की मूरत
किया उसने आप ही अभ्यास निरंतर
मेरे बहस मे की वही बिंदु हो तुम
हर पल मुझे बस यही ध्यान है।

एक आँख बंद कर,
साँस भीतर बाँध कर,
मन मे उनको ध्यानकर,
लक्ष्य अव्वल जानकर

मै भी आँखें संकुचित कर
बातें तुम्हारी सोचकर,
तर्क रखता हूँ परस्पर
अपने सच को मानकर,

वाम मे धरकर धनुष
वज्र बाहु तानकर,
शर और मिलाकर प्रत्यंचा
सीधे से संधान कर,

मै हूँ फिर करता प्रकट
प्रश्न, प्रत्युत्तर जानकर,
चेहरे पर देखे विजय के
भाव या मुस्कान भर,

चरण भूमि रोपकर
कान तक ले खींचकर,
छोड़ देता वह अंगूष्ठा
एक बारी भींचकर,

विचरोत्तेजक, भावतिरेक
भावना में डूबकर,
मै तुम्हारा हाथ धरता,
तिरता हूँ सच ढूँढकर

मुस्कुराकर नमन करता
गुरु प्रतिमा को मानकर,
लक्ष्य भेदा अचूक ख़ुद ही
पर गुरु-कृपा ही जानकर,

मै भी मानूँ द्रोण तुमको
मुस्कुराता अंत मे,
मेरा सत्य मुझको लुभाता
भव-सागर अनंत मे,

पर अँगूठा दान लेकर
छोड़ देना व्यर्थ मे,
'द्रोण' करते हैं युगों से
गुरु-महिमा कलंकित स्वार्थ मे।

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