कहीं मुंह मे लेकर गुटका
बोलने लगा जुबान केसरी,
कहीं लेके किसी का नंबर
घुमाने लगा किसी को दूसरी,
कहीं फिल्में देखते–देखते
छोड़ दिया पढ़ाई,
कहीं बातें करते–करते
मै भूल गया लिखाई,
कभी दिल्ली जाकर मै
उसके साथ घूमने लगा,
कहीं डिस्को जाकर मै
सुबह शाम नाचने लगा,
कहीं दारु पीकर सड़क पर
हो गया मैं बेसुध,
कहीं चिल्लाकर बात करने लगा
और हो गया काफिर,
कहीं वह अच्छा लगने लगा
जो मै समझता हूं की नही है,
कहीं वो मांग न रख दूं
जो मै जानता हूं की नामुमकिन है,
कही उससे मिलने की जिद
मै करने ना लगूं
जो जा चुकी है,
कहीं उसके घर
ना चला जाऊं जो
घर अपना बसा चुकी है,
कहीं उसको न वो बोल दूं
जो पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो,
कहीं उसकी न बात उभाड़ दूं
जो सबसे पीछे हट चुकी है,
मै कहीं ऐसा काम न कर दूं
जहां राम नाम ही मिले न,
कहीं आम्रपाली के घर जाकर
मै रात भर ही रुकूं न,
पर कहां है धाम
जहां नहीं हैं राम?
कौन है कर्म जिसमे
राम के नहीं मै संग!
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