त्रास हो गया है,
उनको पति का
अभिशाप हो गया है,
कर्म किए बिना ही
वो कलंकिनी कहायी,
किसी को बात अपनी
समझा नहीं पाई,
माता अहिल्या
स्तब्ध हो गई,
दिल ठंड पड़ है
मूर्तिवत हो गई,
समाज मे थू हो गई
और तिरस्कार हो गया,
माता सरीखी पद पर
काम सवार हो गया,
ना गौतम, ना राजा
ना रंक, न फरिश्ते
ना राक्षस, ना देव
ना दोस्त, नहीं रिश्ते,
उनकी चित्कार कहां
कौन सुन पाया?
सुन्न हो गई
सब इंद्रियां ही मात की,
भाव ही नहीं रहा
वो हो गई मूक भाव ही,
बोली नहीं, खाया नहीं
और अछूत रहीं वर्षों,
मान के बिना हुआ क्या
जीना किन आदर्शों?
राम आए छू लिया
पैर मां पुकार के,
अछूत किया कर्म को
मानव हृदय सवार के,
धर्म की टेक ले के
विश्वामित्र को सीखा दिया,
गौतम सरीखे ज्ञानी को
ज्ञान भी बता दिया,
कर्म के पहलू बहुत
सत्य क्या असत्य क्या?
धर्म मानवता ही है
प्रेम जिसमे है पला!
उद्देश्य यदि प्रेम है
तो कर्म केवल मार्ग है,
धर्म का अवलंब हो
तो मृत्यू क्या, समाज क्या?
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