कुछ धुआं भी है,
पत्तों की जलन से
मौसम खुशनुमा–सा है
चिटक–चिटक सुलग रही
ये धीमी आंच की लपट
ये धूप से पहले समेटी
धूल की जुटी परत
गुल्लरों की पत्तियां,
गुल्लारों की ही टपक
नानी के घर की
खुशबू है ये शोख–सी,
नानी की तरह पकड़ के
हाथ है ये बैठ गई
बचपन की याद आज
फिर कहां से आ बही!
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