वो निर्भीक यारों की गलबहियाँ,
वो ठंड की हल्की धूप के खुले मैदान
कंधों के पीछे ढलता सूरज,
वो छत के ओदे कपड़े
अंधेरों में दबे पांव,
वो कुछ और कलम चलाने के पहले
मिलने वाले थोड़े पल,
वो syllabus की अंधी दौड़
और कभी ना आने वाला कल,
वो प्रिन्सिपल के कमरे के बाहर
फैला हुआ सा डर,
और मिमिक्री करने से
हल्के होते पल,
आकाश के तारे गिनते-गिनते
सोने जाते बज जाते दो,
वो उठना ठंड में pt जाना
पहन ओढ़ कर मोजे टोप,
कुम्हलाई आँखों से उसको
निगाह में भरने वाली धुन,
कुछ खेल-खेल मे लड़ जाना
वो इश्क मे उसके टांग लड़ाना!
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