जला रही है,
पानी अन्तर का 
सूखा रही,
उबाल रही 
अंग के भीतर 
ज्वाला से बुलबुले 
उठा रही,
लहरों को 
करती तीव्र,
इधर-उधर 
भटका देती,
नाम नहीं लेती 
गंगोत्री का,
चलने को करती 
टेढ़ी- मेढ़ी,
खींच पकड़ कर 
लेती हाथ,
पाँव कहीं और 
कहीं पर माथ,
अम्बर के ऊपर, 
धरती के भीतर 
अतल और पाताल,
आग बड़ी भीषण विकराल 
कर रखती है अकाल!
 
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