जा रही है सांसे।
उसके आसपास हूं मैं
उसमें हूं मैं।
वह आती है धूप की तरह
खिलाती गुलशन शरीर की,
वह देखती सही और गलत,
ठीक और नहीं।
करती संवाद,
यदा-कदा कर देती ईत्तेला,
वह जानती है सच,
मेरा और शरीर का।
बतला देती मुझको,पर मैं सुनता कहां?
ठीक हो जाता मैं
अगर मैं करता,
जो कहती सांसे।
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