मेरे बाग बगीचों मे
लाल नहीं उसका कपार था
घर की लगी दीवारों पर,
रंग बदल लेता था वो
मुझे देख छुपाता था वो
गिरगिट बड़ा निराला था
कूद–फांदने वाला था,
हंसता और मुसकाता था
गिरगिट हमे चिढ़ाता था
हम पढ़ने बैठते कमरों मे
वो खेल मदाड़ी दिखाता था
जब हम परीक्षा देते थे
तो गिरगिट मौज मनाता था,
गिरगिट जब छत से गिर जाता
तो पलट खड़ा हो जाता था
फिर रंग बदल
माहौल के जैसा
और मगन हो जाता था,
गिरगिट जीने मरने मे
मौज बहुत उठाता था
जीना कैसे है हंसी खुशी
यह गिरगिट हमे सिखाता था।
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